Added by Ashok Kumar Raktale on July 23, 2012 at 2:09pm — 6 Comments
“हूँ, कुछ कहा”. “कुछ भी तो नहीं”.”मुझे लगा शायद तुम कुछ बोले”. अक्सर ऐसा होता है जब किसी से बात करने का मन हो किन्तु जुबान खामोश हो.एक आवाज कान में गूंजने का आभास होता है.खामोशी में भी ये आवाज कहाँ से आती है? ये आभास कैसे होता है? कभी नहीं जान सका. कई बार घर में अकेले बैठे हों और बाहर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आती है जब हम वहाँ जाकर देखते हैं तो पता चलता है वहाँ तो कोई भी नहीं है.
कई बार पलंग पर पड़े…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on June 1, 2012 at 7:30am — 11 Comments
पौधा था छोटा था
लगता था अब गया तब गया
कभी बारिश की बुँदे
सुहानी लगती थी
कभी लगता डूब गया डूब गया,
हिम्मत करके टहनियां बढ़ाई,
नयी कोपलें बिखराई,
अब गगनचुम्बी वृक्षों को
छूने लगी टहनियां,
लगा मै भी खडा हो गया खडा हो गया,
मगर पुष्पों के खिलने तक
अहसास नहीं हो पाया बड़ा होने का,
फलों से लदते ही लगा
मै बड़ा हो गया बड़ा हो गया,
मै भूल गया
वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने…
Added by Ashok Kumar Raktale on May 19, 2012 at 9:00am — 20 Comments
Added by Ashok Kumar Raktale on May 7, 2012 at 6:00pm — 16 Comments
गुमनाम है
बड़ा बदनाम है
हाँ गुलाम है.
....................
रिश्ते नाते हैं
बड़ा ही रुलाते हैं.
टूट जाते हैं.
..................
वृक्ष रोते हैं
जनता हंसती है,
कैसी बस्ती है.
.......................
सुखा कंठ है,
मनवा उदास है,
कैसी प्यास है.
.......................
तू ही जीत है
तुझसे ही प्रीत है,
तू ही मीत है.
.....................
भ्रष्टाचार है,
ठोस जनाधार है,
सरकार है.…
Added by Ashok Kumar Raktale on April 30, 2012 at 6:30pm — 18 Comments
तम में अपनी तुणीर बाँध कर जब ये चलते हैं,
मेरे ह्रदय मन आँगन से रोज निकलते हैं,
एक बाण और कई लक्ष्य दें मन को छलते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं,
सुप्त पड़ी काया में तो निशदिन खेल ये करते हैं,
श्वेतश्याम से आकर मन में रंग ये भरते हैं,
कई बार मुरझाये मन में यह उजियारा करते हैं,
और मानव के जगने तक नैनों में ठहरते हैं,
कभी पूर्णता पा जाएँ सोच कर मन में टहलते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं,
छूकर मानव के मन…
Added by Ashok Kumar Raktale on April 9, 2012 at 6:43am — 2 Comments
अभेद्य है ये दुर्ग अभी न सेंध से प्रहार कर I
बिखेरना है धज्जियां, सत्य का तू वार कर II
प्रहार कर प्रहार कर........
धन की बहुत लालसा बिके हुए जमीर हैं.
तन के महाराज सभी मन के ये फ़कीर हैं.
विवश अब नहीं है तू , देख तो पुकार कर
बिखेरना है धज्जियां, सत्य का तू वार कर II
प्रहार कर प्रहार कर........
कौम अब पुकारती न और इन्तजार कर,
रक्त से बलिदान के सींचित इस…
Added by Ashok Kumar Raktale on March 25, 2012 at 4:25pm — 10 Comments
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