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जयनित कुमार मेहता's Blog – August 2016 Archive (4)

अब भी कुछ संभावनाएँ शेष हैं (ग़ज़ल)

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जानता हूँ आपदाएँ शेष हैं।

क्यों डरूँ?जब तक दुआएँ शेष हैं।



जन्म लेते ही रहेंगे राम-कृष्ण,

जब तलक धरती पे माँएँ शेष हैं।



कोशिशें तो आप सारी कर चुके,

अब तो केवल प्रार्थनाएँ शेष हैं।



सूर्य ढलने को अभी कुछ वक़्त है,

अब भी कुछ संभावनाएँ शेष हैं।



बोलिये! इस दौर में कैसे जिये?

जिसके दिल में भावनाएँ शेष हैं।



मंदिरों से देवता ग़ायब हुए,

मूर्तियों में आस्थाएँ शेष हैं।



बस्तियाँ तो बाढ़ में… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on August 16, 2016 at 1:16pm — 11 Comments

दो ही किरदार थे कहानी में (ग़ज़ल)

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आग शायद लगी है पानी में।
शोर है खूब, राजधानी में।

जाने हर बार क्यों निकलता है,
फ़र्क़,उसके मिरे मआनी में।

बोलिये! किसको होती दिलचस्पी,
दो ही किरदार थे कहानी में।

आदमी का नसीब है,बहना..
वक्त के मौजों की रवानी में।

उम्र सारी बटोरने में गई,
ख़्वाब टूटे थे कुछ,जवानी में।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on August 12, 2016 at 4:41pm — 3 Comments

हमेशा से ये दिल दरिया रहा है (ग़ज़ल)

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कभी सूखा, कभी बहता रहा है।
हमेशा से ये दिल दरिया रहा है।

जो मेरा अक्स दिखलाता रहा है।
वो आईना ख़ुदी धुंधला रहा है।

ग़ज़ब ये रिश्ता-ए-दिल भी है कैसा,
हमेशा, जुड़ के भी टूटा रहा है।

वो दिल के पास आ पहुँचा है लेकिन,
नज़र से दूर होता जा रहा है।

चुराए हैं मेरी पलकों से उसने,
जो बादल आसमां बरसा रहा है।

ज़माने को भला कैसे बताऊँ
कि तुमसे मेरा क्या नाता रहा है।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on August 8, 2016 at 10:30pm — 1 Comment

एक सूनी डगर रहा हूँ मैं (ग़ज़ल)

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टूटकर अब बिखर रहा हूँ मैं।

खुद को आईना कर रहा हूँ मैं।



मुझको दुनिया की है खबर लेकिन

खुद से ही बेखबर रहा हूँ मैं।



चोट खा-खा के, अश्क़ पी-पीकर,

आजकल पेट भर रहा हूँ मैं।



फिर भँवर पार कर के आया हूँ,

फिर किनारे पे डर रहा हूँ मैं।



उम्र-भर ढूँढता रहा खुद को,

उम्र-भर दर-ब-दर रहा हूँ मैं।



पास मंज़िल के आ गया, फिर क्यों,

हर कदम पर ठहर रहा हूँ मैं?



क्या गुज़रता भला कोई उसपर,

एक सूनी… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on August 1, 2016 at 11:28am — 10 Comments

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