कितने "अपने"
पहचाने थे यही रास्ते
पेड़ों की छाँह ओढ़े
कुहनी टेक
सरक जाते थे कितने
अच्छे-बुरे तजुर्बे
अचानक
चौंक जाती थी शाम
"मुझको घर जाना है"
तुम्हारे अरुणिम ललाट पर
अकस्मात चिंता की छायाएँ
और फिर ...
और फिर देख
मेरी आँखों में अपनी आँखों की चमक
तुम्हारा ही मन नहीं करता था
हाथ छोड़ चले जाने को
कि मानो जाते-जाते रुक जाती थी शाम
एक "और" आज के प्रेम-पत्र…
ContinueAdded by vijay nikore on September 30, 2019 at 10:22pm — 6 Comments
भीतर तुम्हारे
है एक बहुत बड़ा कमरा
मानो वहीं है संसार तुम्हारा
वेदना, अतृप्ति, विरह और विषमता
काले-काले मेघ और दुखद ठहराव
इन सब से भरा यह कमरा बुलाता है तुमको
जानती हूँ यह भी कि इस कमरे से तुम्हारा
रहा है बहुत पुराना गहरा गोपनीय रिश्ता
इस आभासी दुनिया के मिथ्यात्व से दूर होने को
तुम कभी भी किसी भी पल धीरे हलके-हलके
अपराध-भाव-ग्रस्त मानों फांसी के फंदे पर झूलते
बिना कुछ बोले उस कमरे में जब भी…
ContinueAdded by vijay nikore on September 16, 2019 at 9:39am — 6 Comments
पूर्तिहीन संवाद
आकुलित असंवेदित भाव
अपाहिज हुई वह जो होती थी
स्नेह की अपेक्षित शाम
गई कहाँ वह ममतामयी प्रतीक्षातुर बाहें
दिशायों से आती तुम्हारे आने की आहट
ऊब गई है, उकता गई है कब से
नपुंसक दुखजनित अजनबी हुई आस्था
महिमामयी स्मृतियों के आस-पास
मटमैली रौशनी सुनसान गहरी उदास
फिर क्यूँ जोड़ती हैं हमें देहहीन परछाइयाँ
आसाधारण अपूर्ण प्रवाही दिशाहीन हवा-सी
कसकती…
ContinueAdded by vijay nikore on September 8, 2019 at 3:58pm — 2 Comments
अजीब अवस्था है
कोई खुरदरी विवशता है
और है अद्भुत चित्ताकर्षण ....
पलकों के आसपास
गहन दूरता का आवरण
कि जैसे हो फैल रहा
मूर्छा का मौन वातावरण
अपरिचित भीड़ में खो गईं
कितनी परिचित संज्ञाएँ
सरोवर-सदृश संवेदनाएँ
फिर भी न जाने कैसे
दरिद्र हुई धड़कन में भी आदतन
कोई वादा निभाने के बहाने ही शायद
डरी हुई बाहें फैलाए
व्याकुलतर गति से छू लेती हैं
आज भी…
ContinueAdded by vijay nikore on September 3, 2019 at 7:27am — 4 Comments
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