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ग़ज़ल (सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी)

भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।

पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,
मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।

हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,
बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।

इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।

शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।


आज हिन्दी दिवस पर
22 122 22 // 22 122 22 बहर में

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Niraj Kumar on October 8, 2017 at 7:52pm

जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

आप पटल ही पर लिखें तो बेहतर होगा. इससे सबका ज्ञानवर्धन होगा.

सादर 

Comment by Niraj Kumar on October 8, 2017 at 7:45pm

जनाब तस्दीक अहमद साहब,

'शायरी के फील्ड में महारत' हासिल होने का मेरा कोई दावा नहीं है. लेकिन मैंने जिन उसूलों का जिक्र किया था वो मुल्ला गयासुद्दीन तूसी के तय किये हुए हैं मेरे नहीं. उन्हें ध्यान से पढ़ें आपको अपने उत्तर मिल जायेंगे. मैंने  कहीं नहीं कहा कि बह्र रमल मुसम्मन मशकूल सालिम में फइलात को मफऊल नहीं किया जा सकता मैंने कहा था कि (1121  2122  1121  2122) में से किसी एक 1121 (फइलात) को ही तस्कीने औसत से 221(मफऊल) के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाज़त है.

आपने ग़ालिब की जिस ग़ज़ल की नज़ीर पेश की है उसमे कही फइलात को तस्कीने औसत से मफऊल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है और न ही उर्दू के किसी मशहूर शायर ने कभी इस बह्र में फइलात की जगह मफऊल का इस्तेमाल किया है.

सादर  

Comment by Samar kabeer on October 8, 2017 at 7:33pm
मैं अभी बहुत मसरूफ़ हूँ,मुझे कुछ वक़्त दीजिये,आपकी आरज़ू पूरी करने की कोशिश करूंगा,अपना फोन नम्बर दीजिये अगर ज़हमत न हो तो,ताकि एक बार आपसे खुलकर बात हो सके,यूँ क़ब तक लिखते रहेंगे ।
Comment by Niraj Kumar on October 8, 2017 at 7:18pm

जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

आभार आपका , आपने खुद ढूँढने की बात कही थी. इसलिए मीर पर मुझे जो तथ्य हासिल हुए आपके सामने रख दिए . 

मेरी  कोशिश सिर्फ सही तथ्य सामने रखने की होती है.

सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 8, 2017 at 10:44am
जनाब नीरज साहिब ,बहुत खुशी की बात है कि आपका शोध का काम पूरा हुआ ,लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि आपको शायरी के फील्ड में महारत हासिल हो गई । आप एक किताब कलीदे उरूज़ जो कि डॉक्टर ओम प्रकाश अग्रवाल ज़ार अल्लामी साहिब की लिखी हुई है उसके पेज नंबर 273 पर बह्र रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ईफ (फइलात-फ़ाइलातुन -फइलात -फ़ाइलातुन )जिस में फइलात को मफऊल किया जा सकता है ,दी हुईहै ।जिस में ग़ालिब साहिब के शेर (यह मसाइले तसव्वुफ़ यह तेरा बयान ग़ालिब -तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार होता ) की तकती इसी बह्र में की गई है
को एक बार पढ़ कर ज़रूर देखें ,फिर आप कहिये कि क्या मुमकिन है और क्या नामुमकिन --- सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 7, 2017 at 11:21pm

आदरणीय बासुदेव अग्रवाल नमन जी, आपकी इस रचना पर हुई बहस से मन प्रसन्न है. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि ऐसी चर्चाएँ सकारात्मक सोच के साथ हुआ करें, जिसमें सीखने-सिखाने का उद्येश्य सन्निहित हो. अन्यथा चर्चाओं की गति अनावश्यक बकवाद में फँस जाती है. अपनी बातें छोड़ मुद्दों पर चर्चा हो तो अन्य पाठकों को जिनके लिए कई बातें नयी-नयी हुआ करती हैं, इन सबों का महती लाभ मिलता है.

मैं अपनी कही बात को क्रमबद्ध ढंग से कहता जाऊँगा जो सभी के लिए आवश्यक होगी. अभी पढ़ रहा हूँ . 

आपकी रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ 

Comment by Samar kabeer on October 7, 2017 at 10:34pm
जनाब नीरज जी आदाब,आपका शोध कार्य पूरा हुआ इसके लिये बधाई आपको,मुझे जो इंगित करना था मैं कर चुका हूँ,और आपको मीर की ऐसी ग़ज़लें नहीं मिलीं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ,आप बाल की खाल निकालते हैं,और मैं इशारों में अपनी बात कहता हूँ,मंच के सदस्य मेरी बात से संतुष्ट हैं,मेरे लिये इतना काफ़ी है,आपको संतुष्ट करने की जवाबदारी मेरी नहीं है,क्योंकि मेरा शोध कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है,और वो आख़री साँस तक चलता रहेगा ।
Comment by Niraj Kumar on October 7, 2017 at 8:20pm

जनाब समर कबीर साहब; आदाब,

आपने मीर की खुद साख्ता बह्रों का जिक्र किया था, चुकि मीर मेरे शोध कार्य का हिस्सा हैं मुझे इसमें दिलचस्पी इसलिए भी ज्यादा थी, मैं मीर पर अपना काम लगभग पूरा कर चूका हूँ लेकिन मीर की ग़ज़लों में मुझे ऐसी कोई ग़ज़ल नहीं मिली जो अरूज के दायरे के बाहर हो और जिसके आहंग को खुद साख्ता कहा जा सके.

जिसे बहे मीर कहा जाता है वो भी मीर की ईजाद नहीं है उसका प्रचलन आदिलशाह के वक्त से ही रहा है और यह बह्र भी अरूज के दायरे के बाहर नहीं है.

सादर

Comment by Niraj Kumar on October 7, 2017 at 7:28pm

जनाब तस्दीक अहमद साहब,

(221 2122 221 2122) का 'रमल,मुसम्मन,मशकूल,मुसक्किन' होना मुमकिन नहीं है. 

इल्मे अरूज़ का एक बुनियादी उसूल है की किसी जिहाफ़ के अमल से हासिल अरकान उसी सूरत में जायज़ होते हैं जब वो किसी दूसरी बह्र का वजन न हों. जाहिर सी बात है कि जब यह आहंग (221 2122 221 2122) मजारे में मौजूद है तो इसे 'रमल

मुसम्मन मशकूल सालिम' (1121   2122  1121  2122) पर तस्कीने औसत के अमल से हासिल नहीं किया जा सकता. (1121  2122  1121  2122) में से किसी एक 1121 (फइलात) को ही तस्कीने औसत से 221(मफऊल) के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाज़त है,

सादर

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 27, 2017 at 7:20pm

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, मत्ले की तक़ती इस तरह की है |
मफऊल -फाइलातुन -मफऊल - फाइलातुन
भाषा ब ---डी है प्यारी ---जग में अ ---नोखी हिन्दी
2 2 1 --2 1 2 2 ----2 2 1 ---2 1 2 2

चन्दा के ---जैसे सोहे ---नभ में नि ---राली हिन्दी
2 2 1 ---2 1 2 2 ---2 2 1 ----2 1 2 2

सादर

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