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अजल की हो जाती है....

अजल की हो जाती है....


ज़िंदगी
साँसों के महीन रेशों से
गुंथी हुई
बिना सिरों वाली
एक रस्सी ही तो है
जिसकी उत्पत्ति भी अंधेरों से
और विलय भी अंधेरों में होता है


ज़िंदगी
लम्हों के पायदानों पर
आबगीनों सी ख़्वाहिशों को
छूने के लिए
सांस दर सांस
चढ़ती जाती है
मौसम
अपने ज़िस्म के
इक इक लिबास को उतारते
ज़िंदगी को
हकीकत के आफ़ताब की
तपिश से रूबरू करवाने की
हर मुमकिन कोशिश करते हैं
मगर अफ़सोस
ग़ुरूर में गुम ज़िंदगी
कायनात की हर ख़्वाहिश को
अपनी मुट्ठी में क़ैद करना चाहती है
नहीं जानती कि
ख़्वाहिश तो
अजल की डिब्बी में क़ैद है
वो कहाँ किसी के हाथों की ज़द में आती है
हर अलससुब्ह
नयी ख़्वाहिश ज़ह्न में अंगड़ाई लेती है
फिर रात की तारीकियों में
अजल की हो जाती है
ज़िंदगी
फिर अपनी नाकामी पे
उदास हो जाती है
थक-हार के
आख़िर
साथ ख्वाहिशों के
वो भी
अजल की हो जाती है


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on November 23, 2017 at 12:38pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत ही उम्दा कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'ग़रूर'-"ग़ुरूर"
'ग़ुम'-"गुम"
'अलसुब्ह'-"अलससुब्ह"
'ज़हन'-"ज़ह्न"
Comment by Mohammed Arif on November 22, 2017 at 4:38pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब,
सुंदर ख़्यालों के रेशमी धागों की बुनी मखमली ज़िंदगी की चादर । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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