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सनम तुझसे ही जाता है वो मेरा रास्ता होकर (ग़ज़ल 'राज )

1222   1222  1222  1222 

हक़ीक़त की जुबाँ होकर सदाक़त की सदा होकर 
मिला क्या  जिंदगी तुझको बता यूँ आइना होकर 

उड़ा कर ले गई आँधी सभी अरमाँ सभी सपने 
लुटे हम तो ज़माने  में मुहब्बत के ख़ुदा होकर 

मुहब्बत के चमन में गुल मुक़द्दस खिल नहीं पाये 
तगाफ़ुल और रुसवाई मिली बस बावफ़ा होकर 

तआरुफ अब मिला जाकर हमें अपनी मुहब्बत का 
बनेगी दास्तां सच्ची फ़क़त अब तो फ़ना होकर 

हुई सब आम वो बातें जिन्होंने लांघ दी चौखट 
तमाशा बन गये आँसू इन आंखों से जुदा होकर 

नुमाइश मेरे जख़्मों की जहाँ जिस गाह पर होगी 
सनम तुझसे ही जाता है वो मेरा रास्ता होकर 

बचे अपनी मुहब्बत के फसुर्दा फूल बरसाना 
तेरे कूचे से जब गुजरे जनाज़ा ये मेरा होकर

 

अभी तक याद है हमको तुम्हारा वो नया चेह्रा  

मिले तुम  मुख्तलिफ़ अंदाज़ में जब आशना होकर

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 5:43pm

बहुत बहुत शुक्रिया भाई जी .

Comment by Samar kabeer on December 25, 2017 at 5:38pm

'मिरा' क़ाफ़िया ठीक है बहना ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 5:36pm

आद० अजय तिवारी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपका .काफिये पर मात्रा गिराने के विषय में जानकारी उपलब्ध कराने का शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 5:34pm

आद० समर भाई जी ,इसका मतलब मेरा काफिया जो मेरा के स्थान पर लिया है मिरा वो सही है आपके मार्गदर्शन का दिल से शुक्रिया भाई जी 

Comment by Ajay Tiwari on December 25, 2017 at 3:07pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई. मतला लाजबाब है.

काफिया जिस हर्फ़ पर कायम होता है उसे नहीं गिराया सकता. काफिये के बाकी हिस्सों को गिराया जा सकता है. 

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे - अहमद फ़राज़     

इस शेर की बह्र 'मुज्तस मुसम्मन मखबून महजूफ़ मुस्क्किन ' (मफाइलुन फ़इलातुन मफाइलुन फेलुन - 1212 1122 1212 22) है. इस शेर में 'ऊँ' को गिराया गया है जिसकी इजाजत है. लेकिन  'ऊँ' से पहले के ' ा' को नहीं गिराया जा सकता. अगर 'ऊँ' नहीं होता और काफिया सिर्फ ' ा' (अलिफ़) का होता तो उसे गिराया जाना मुमकिन नहीं होता.

सादर       

Comment by Samar kabeer on December 25, 2017 at 11:23am

बहना, मैं इसी बिन्दू को साझा करना चाहता था कि क़ाफिये में मात्रा गिराना मना है,लेकिन उसकी भी शर्त है ,अब जैसे आपने क़ाफ़िया लिया है 'मेरा'तो इसे मात्रा गिराकर 'मिरा' कर सकते हैं लेकिन इसे 'मेर' नहीं कर सकते,यानी आगे की मात्रा नहीं गिरा सकते,उम्मीद है आपका और आरिफ़ भाई का संशय दूर हुआ होगा ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 8:30am

आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ बहुत बहुत शुक्रिया .आपका संशय भी वही  है जो मेरा है समर भाई जी पता करके पुख्ता जानकारी देंगे 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 8:28am

आद० समर भाई जी .आदाब ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और प्रतिक्रिया का सदैव इन्तजार रहता है जाँ को सुकून मिला कि आपको ग़ज़ल पसंद आई आपने बहुत अच्छी इस्स्लाह दी अंतिम शेर में तुम कि जगह थे ज्यादा ठीक रहेगा .

और भाई जी सातवें शेर में मेरा अर्थात काफिया में मात्रा गिराना सही है या नहीं लिखते वक़्त मैं खुद इस असमंजस में थी आप अरुज के अनुसार मेरे इस संशय का समाधान कीजिये ताकि इसके स्थान पर कोई मुनासिब लफ्ज़ ढूँढ सकूँ .

Comment by Mohammed Arif on December 25, 2017 at 12:18am

आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,

                                इश्क़ के विविध रंगों में रंगी बेहतरीन ग़ज़ल । मुहब्बत का हर शे'र बढ़िया है । आगे मैं आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की बात को आगे बढ़ाते हुए पूछना चाहूँगा कि क्या रदीफ और काफिए में मात्रा गिराने की छूट का लाभ मिलता है ।बाक़ी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on December 24, 2017 at 9:56pm

बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

जहाँ तक मेरी मालूमात है, क़ाफ़िए में मात्रा गिराने की इजाज़त नहीं होती,मेरा इशारा सातवें शैर की तरफ़ है ।

आख़री शैर के सानी मिसरे में 'तुम' की जगह "थे" कर लें तो मज़ा आ जाए ।

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