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आशियाँ
            "मैं मानता हूँ सुम्मी। मुझे तुम्हें यहां नहीं बुलाना चाहिए था लेकिन यदि आज मैं अपनी बात नहीं कह पाया तो फिर कभी ऐसा अवसर नहीं आएगा।" ढलती शाम के साये में वह अपनी बचपन की मित्र के सामने खड़ा,अपनी बात कह रहा था।

"मैं जानती हूँ यार, तुम 'जॉब' के लिये बाहर जा रहे हो।" सुम्मी हल्का सा मुस्करायी। "और ये भी जानती हूँ कि तुम क्या कहना चाहते हो? लेकिन हमारे बीच ये कभी संभव नहीं था, और अब तो बिलकुल भी नहीं।"


"नहीं सुम्मी, मुझे अपनी बात पूरी कहने दो।" कहते हुये उसने अपनी नजरें सुम्मी पर टिका दी। "ये सच है कि हमारी 'फ्रेंडशिप' के बीच कब मैं तुमसे मोहब्बत करने लगा, मैं खुद भी नहीं जानता। मगर ये भी सच है कि हमारे परिवारों के बीच अपनापन बना रहे, इसलिए मैंने अपनी मोहब्बत का इजहार नहीं किया। लेकिन अब मैं तुम्हें इस हाल में नहीं छोड़ सकता।" कहते हुये वह घुटने के बल झुक गया। "सुम्मी, मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ और तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूँ।"


"नहीं दोस्त, ये नहीं हो सकता।" तुम्हारी मोहब्बत और भावनाओं की मैं कद्र करती हूँ लेकिन......" कहते हुये सुम्मी कुछ उदास हो गयी। ".....लेकिन मेरे चेहरे पर बिखरे 'उसकी' नफरत के तेजाबी धब्बों पर तुम सहानुभूति दिखाकर बलिदान करना चाहों। ये मुझे स्वीकार नहीं।"


"बलिदान.....!" उसके चेहरे पर दर्द उभर आया। "नहीं सुम्मी ये बलिदान नहीं, मेरा पश्चाताप है। उस 'शैतान' को ये तेजाबी सलाह हँसी-हँसी में मैंने ही दी थी, जब वह मुझसे अपनी 'वैलेंटाइन' को सबक सिखाने की बात करने आया था। मुझे क्या पता था कि मैं अपने ही 'आशियाने' को जलाने की बात कर रहा हूँ।"

"बहुत अच्छे दोस्त। हँसी में ही सही....., पर आज पता लगा कि तुम दूसरों के 'आशियाँ' के बारें में सोचते क्या हो?" कहते हुए सुम्मी पलट चुकी थी।


'मौलिक स्वरचित व् अप्रसारित'

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Comment by TEJ VEER SINGH on February 10, 2018 at 1:54pm

हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी। एक बेहतरीन सशक्त लघुकथा।मज़ा आगया।शुरू से अंत तक लाज़वाब।

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