For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

रीतिरात्मा काव्यस्य - डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

रीति संप्रदाय पर चर्चा करने से पूर्व  यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भारतीय हिन्दी साहित्य के रीति-काल में प्रयुक्त ‘रीति’ शब्द से इसका कोई प्रयोजन नहीं है I रीति-काल में लक्षण ग्रंथो के लिखने की एक बाढ़ सी आयी, जिसके महानायक केशव थे और इस स्पर्धा में कवियों के बीच आचार्य बनने की होड़ सी लग गयी I परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कवि स्वयंसिद्ध आचार्य बने और कोई –कोई कवि न शुद्ध आचार्य रह पाए और न कवि I इस समय ‘रीति ‘ शब्द का प्रयोग काव्य शास्त्रीय लक्षणों के लिए हुआ I  किन्तु, जिस रीति संप्रदाय की चर्चा यहाँ पर अभीष्ट है वह आचार्य वामन और दंडी के समय से प्रवर्तित है I प्रमुखतः आचार्य वामन ने ही आठवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ‘काव्यालंकार सूत्र’ ग्रन्थ के अंतर्गत‘रीति’ को काव्य की आत्मा माना I वामन काव्य-शास्त्र में ‘रीति-संप्रदाय’ के आदि प्रवर्तक माने जाते है I चूँकि ‘काव्यालंकार सूत्र’ मूलतः सूत्रों में रचित है अतः उसको अधिकाधिक सुबोध बनाने  के लिए स्वयं आचार्य वामन ने ही ‘कवि प्रिया ’ नाम से इसका एक भाष्य भी लिखा I रीति-संप्रदाय में ’रीति’ का अर्थ लगभग वैसा ही है जैसा अंग्रेजी साहित्य में style का है I हिन्दी में इसका निकटतम पर्याय ‘शैली’ है I इस प्रकार रीति या शैली को काव्य की आत्मा मानकर  काव्य पर विचार करने वाला संप्रदाय ही ‘रीति-संप्रदाय’ है I  अंग्रेज विद्वान कालारिज ने कहा है –

 

                                 Poetry the best words in the best order.

 

            डा0 नगेन्द्र अपनी पुस्तक ’रीति काव्य की भूमिका’ में लिखते है कि- रीति शब्द और अर्थ के आश्रित रचना चमत्कार का नाम है  जो माधुर्य ओज और प्रसाद गुणों के द्वारा चित्र को द्रवित , दीप्त और परिव्याप्त करती हुयी रस दशा तक पहुँचाती है I  रीति के अन्य परिभाषाकार कहते है कि  काव्य में रीति पदों के संगठन से रस को प्रकाशित करने में सहायक होती है I इस प्रकार रीति का काव्य में वही स्थान है जो शरीर में आंगिक संगठन का है  I जिस प्रकार अवयवो का उचित सन्निवेश शरीर के सौन्दर्य को बढाता है, शरीर को उपकृत करता है उसी प्रकार  वर्णों का यथास्थान प्रयोग शब्द रूपी शरीर और अर्थ रूपी आत्मा के लिए विशेष उपकारक है I अतः काव्य में रीति का विशेष महत्त्व है I  आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद तय किये – वैदर्भी, गौडी, पांचाली   I आचार्य दंडी केवल दो ही भेद मानते है  I वे पांचाली का समर्थन नहीं करते I दंडी पर आचार्य भामह का प्रभाव दीखता है, क्योंकि वे भी केवल वैदर्भी और गौडी का समर्थन करते है किन्तु वह रीत्ति के स्थान पर मार्ग शब्द का प्रयोग करते है I मजे की बात यह है कि परवर्ती आचार्यो ने रीति के तीन से भी अधिक भेद स्थापित किये I लाट  देश में प्रयुक्त होने वाली एक ‘लाटी’ रीति का प्रादुर्भाव हुआ I बाद में भोज ने ‘मालवी’ और ‘अवंतिका’ नामक दो अन्य रीतियों का अविष्कार किया I आनंदवर्धन के   ‘वाक्य वाचक चारूत्व हेतुः’ के अनुसार रीति शब्द और अर्थ में सौन्दर्य का विधान करती है I आचार्य विश्वनाथ रीति को काव्य का उपकारक मानते है I ‘वक्रोक्ति जीवित’ के लेखक क्रन्तक ने रीति का खुलकर विरोध किया I आचार्य मम्मट उनके समर्थन में आये I मम्मट ने रीति को वृत्तियों से जोड़ने की वकालत की I राजशेखर ने रीति को काव्य का बाह्य तत्व बताया I  उनके अनुसार – ‘वाक्य विन्यास क्रमो रीतिः’ I  किन्तु यह सब विरोध  विद्वानों की आम सहमति नहीं पा सका और वामन की रीतियों को मान्यता मिली I

          ‘रीति’ शब्द ‘रीड’. धातु से ‘क्ति’ प्रत्यय देने पर बनता है I इसका शाब्दिक अर्थ प्रगति, पद्धति, प्रणाली या मार्ग है I परन्तु वर्तमान ‘शैली’ के रूप में यह अधिक समादृत है I

        ‘वैदर्भी’ रीति के सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ का कथन है –

                                          माधुर्य व्यंजक वर्णे:रचना ललितात्मका I

                                          आवृत्तिरल्यवृत्तिर्या  वैदर्भी रीति रिष्यते II

 

          अर्थात माधुर्य व्यंजक वर्णों से युक्त, समास रहित ललित पद रचना को ‘वैदर्भी’ रीति कहते है I यह रीति श्रृंगार, करुणा एवं शांत रस के लिए अधिक अनुकूल होती है I इसका प्रयोग  विदर्भ देश के कवियो ने अधिक किया है I इसी से इसका नाम वैदर्भी रीति पड़ा I इसका एक अन्य नाम ‘ललिता ‘ भी है I  मम्मट ने इसे ‘उपनागरिका’ कहा है I रुद्रट के अनुसार यह समास रहित श्लेषादि दस गुणों और अधिकांशतः चवर्ग से युक्त, अल्प प्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति है I इसमें सानुनासिक शब्द  जिन पर चन्द्र बिंदु लगा होता है या जिनका उच्चारण नाक सा होता है अधिकांशतः प्रयुक्त होता है I कालिदास इस रीति के चैंपियन कवि थे I हिदी के रीतिकालीन  कवियो ने इस रीति का भरपूर प्रयोग किया है I बिहारी के निम्नांकित दोहे में इस ‘रीति’ की छटा  देखिये -  

  

                                       रस सिंगार मंजनु किये  कंजनु भंजनु दै न I

                                       अंजनु रंजनु ही बिना    खंजनु गंजनु नैन II (बिहारी सतसई )

 

          यहाँ पर अनुस्वार का भरपूर प्रयोग हुआ है I सामासिक पदावली नही है I चवर्ग छाया हुआ है I पद मे माधुरी है I  अतः यहाँ वैदर्भी रीति स्पष्ट है I  कुछ अन्य उदाहरण भी दिए जा रहे है  I

 

                                   1- कंकण किंकिणि नूपुर धुनि सुनि I

                                       कहत लखन सन राम ह्रदय गुनि II (मानस)  

                                  2- परिरंभ-कुंभ  की मदिरा  निश्वास मलय के झोंके I

                                      मुख-चन्द्र चांदनी-जल से मै उठता था मुख धो के I (आंसू )

 

          गौडी रीति को ‘परुषा ‘ भी कहते है I आचार्य मम्मट इसे परिभाषित करते हुए कहते है  है -“ ओजः प्रकाशकैस्तुपरूषा“ अर्थात जहाँ ओज गुण का प्रकाश होता है, वहां ‘परुषा’ रीति होती है I इसमें दीर्घ-समास-युक्त पदावली का प्रयोग वाजिब माना जाता है I मधुरता और सुकुमारिता का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है I इस द्रष्टि से वीर,रौद्र, भयानक और वीभत्स की निष्पत्ति में गौडी रीति का भरपूर परिपाक होता है I युद्धादि वर्णन इस रीति के प्राण है इसमें ललकार,  चुनौती और उद्दीपन का बाहुल्य होता है I  कर्ण कटु शब्दावली और महाप्राण जैसे- ट ,ठ ,ड ,ढ ,ण तथा ह आदि का प्रयोग इसमें अधिक होता है I गौडी या परुषा रीति का काव्य कठिन माना जाता है I एक उदाहरण प्रस्तुत है -

 

                                      देखि ज्वाल-जालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
                                      कह्यो  धरो-धरो,  धाए  बीर बलवान हैं ।
                                      लिएँ  सूल-सेल,  पास-परिध,  प्रचंड दंड
                                      भोजन  सनीर,  धीर  धरें धनु -बान है I 

                                     ‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
                                     जातुधान  पुंगीफल  जव  तिल धान है ।
                                     स्रुवा सो लँगूल , बलमूल  प्रतिकूल  हबि,
                                     स्वाहा महा  हाँकि-हाँकि हुनैं हनुमान  हैं । (कवितावली)

         ‘पांचाली’ रीति के सम्बन्ध मे कहा गया है – ‘माधुर्य सौकुमार्यो प्रपन्ना पांचाली’ I अर्थात, पांचाली में मधुरता और सुकुमारता होती है I परन्तु यह तो वैदर्भी की भी विशेषता है I फिर अंतर क्या हुआ ?  वस्तुतः पांचाली रीति न तो वैदर्भी की भांति समास रहित होती है और न गौडी की भांति समास-जटित I यह मध्यममार्ग है इसमें छोटे-छोटे समास अवश्य मिलते है I इस रीति से काव्य भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनता है I अनुस्वार का प्रयोग न होने से यह वैदर्भी की तुलना में अधिक माधुर्य युक्त होती है I जैसे –

                                             मानव   जीवन-वेदी    पर

                                                     परिणय हो विरह-मिलन का I

                                                               सुख-दुःख    दोनों   नाचेंगे

                                                                        है खेल,  आँख का  मन का I

 

         उक्त उदाहरण में अनुनासिक शब्द का अभाव है I जीवन-वेदी ,विरह-मिलन और सुख-दुःख में समास है I कर्ण-कटु या महाप्राण   का प्रयोग लगभग नहीं किया गया है  I शांत-रस का निर्वेद इसमें मुखर है I अतः यहाँ पर पांचाली रीति का सुन्दर निर्वाह हुआ है I

 

 

                                                                                                                                           ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना

                                                                                                                                          सेक्टर-ए, अलीगंज, लखनऊ I

                                                                                                                                          मो0   9795518586

 (मौलिक व अप्रकाशित )

Views: 5639

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 24, 2014 at 11:02am

आदरणीय सौरभ जी

आपका अनुराग चिरंतन बना रहे i  मार्ग दर्शन भी i  आप प्रस्तुति पर आये i मेरा सौभाग्य है i सादर i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 24, 2014 at 4:24am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, मुझ जैसे अज्ञानी साहित्य अनुरागी के लिए यह रचना अत्यंत आकर्षक ही नहीं प्रकाशोद्दीपक भी है. आनंद आ गया पढ़कर...आपका आभार. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2014 at 11:32pm

सारगर्भित आलेख से काव्य तत्त्व के कई विन्दुओं पर प्रकाश पड़ता है. काव्य प्रवृतियों के अन्यान्य भेदों-उपभेदों का प्रभाव काव्य जगत पर कितना पड़ा यह इसी से स्पष्ट है कि पूरा काव्य जगत ही आगे इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष परिभाषित हुआ.

इस आलेख के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायनजी.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 23, 2014 at 9:03pm

आदरनी शांति लाल जी

आपको ज्ञात  होगा कि आचार्यो ने काव्य प्रव्रत्तियो को लेकर रस, अलंकार ,रीति,वक्रोक्ति,ध्वनि  और औचित्य  ये छः संप्रदाय चलाए है और अपने अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ ठहराया है  i इनमे विद्वान कही सहमत और कही असहमत भी होते है  पर इन सभी सम्प्रदायों का अपना निज महत्व भी है i खंडन मंडन विद्वानों की वस्तु है i हम विद्यार्थी हैi  हमें आचार्यो की बात सुननी  चाहिए i रीतिरात्मा काव्यस्य मेरा कथन नहीं है  यह रस संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन का कथन है i  आशा  है आप  मुझे आप शमा करेंगे i  सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 23, 2014 at 8:53pm

आदरनी विजय जी 

आपका शत-शत आभार  i

Comment by Santlal Karun on July 23, 2014 at 3:57pm

आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,

रीति सम्प्रदाय शरीरी परिक्षेत्र का सिद्धांत है | इसके द्वारा रीति को काव्य की आत्मा कह देने मात्र से रीति काव्यात्मा नहीं हो सकती | हाँ, शब्द, शिल्प, शैली, गति, लय-जैसे शारीरिक तत्वों पर प्रभाव डालने वाले रीति संबंधी सैद्धांतिक तथ्य विचारणीय हैं | आप के सोदाहरण  गंभीर काव्यशास्त्रीय विवेचन पर सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 1:22pm
सारगर्भित .

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service