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हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     2122          2122            212

कोशिशों का अब कहीं नामों निशां रहता नहीं 

हाल अपना संग है वो ,जो कभी ढहता नहीं

हादसे कैसे भी हों कितने भी हों मंज़ूर सब

ख़ून अब बेजान आंखों से कभी बहता नहीं

मेरी क़िस्मत खोज कर के थक गयी मुझको वहाँ

जिन ठिकानो पर कभी मै भूल कर रहता नहीं

मुश्किलें खुद राह देंगीं रास्ते पर आ उतर  

ताल सड़ जाता है सुन ले, जो कभी बहता नहीं

हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर

आग सीने में अगर हो, चुप कभी सहता नहीं

मुश्किलों से इस क़दर तू आज रंजीदा न हो

कौन ऐसा सूर्य है , राहू जिसे गहता नही

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on October 1, 2013 at 7:15pm

आदरणीय गिरिराज  जी ,

बहुत सुन्दर ग़ज़ल //हार्दिक बधाई आपको //सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 1, 2013 at 4:35pm

मुश्किलों से इस क़दर तू आज रंजीदा न हो

कौन ऐसा सूर्य है , राहू जिसे गहता नही.....बहुत सुन्दर ..वाह !

हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल पर आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

Comment by रविकर on October 1, 2013 at 4:35pm

खूबसूरत है गजल, शब्दों ने पाया अर्थ है-
भाव हैं सुन्दर अनोखे, आपका आभार है-

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 1, 2013 at 4:09pm

आदरणीय गिरिराज सर एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल सभी अशआर शानदार हुए हैं दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2013 at 2:28pm

बेहतरीन अशआरों से सजी इस ग़ज़ल पर ढेरों दाद हाजिर हैं आदरणीय गिरिराज जी

सादर

Comment by विजय मिश्र on October 1, 2013 at 1:53pm
"मुश्किलें खुद राह देंगीं रास्ते पर आ उतर
ताल सड़ जाता है सुन ले, जो कभी बहता नहीं|" -- प्रशंसनीय रचना , आभार .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 1, 2013 at 10:03am

बहुत प्रभावशाली गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीय गिरिराज जी

Comment by Neeraj Neer on October 1, 2013 at 9:07am

वाह बहुत उम्दा लिखा है .. सारे अश आर सुन्दर  है .. बहुत बधाई आदरणीय 

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