Comments - ग़ज़ल (जो नज़र से पी रहे हैं ) - Open Books Online2024-03-29T11:51:39Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A1009863&xn_auth=noजनाब रवि शुक्ला जी, आदाब।
ग़ज…tag:openbooksonline.com,2020-06-15:5170231:Comment:10102382020-06-15T08:54:53.066Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>जनाब रवि शुक्ला जी, आदाब।</p>
<p>ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।</p>
<p>जनाब रवि शुक्ला जी, आदाब।</p>
<p>ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।</p> आदरणीय अमीर साहब उम्दा ग़ज़ल…tag:openbooksonline.com,2020-06-15:5170231:Comment:10101482020-06-15T08:00:57.939ZRavi Shuklahttp://openbooksonline.com/profile/RaviShukla
<p>आदरणीय अमीर साहब उम्दा ग़ज़ल कही आपने दिली मुबारक बाद हाजिर है </p>
<p>आदरणीय अमीर साहब उम्दा ग़ज़ल कही आपने दिली मुबारक बाद हाजिर है </p> //जिन्हें' को हटा कर तुम्हें…tag:openbooksonline.com,2020-06-14:5170231:Comment:10101332020-06-14T15:34:27.305Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p><span>//जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है</span></p>
<p><span>"तुम्हें" का वज़्न भी 12 ही होता है ।//</span></p>
<p><span>जी, मुहतरम मैं इस शेअ'र को ग़ज़ल से हटा देता हूँ। सादर। </span></p>
<p><span>//जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है</span></p>
<p><span>"तुम्हें" का वज़्न भी 12 ही होता है ।//</span></p>
<p><span>जी, मुहतरम मैं इस शेअ'र को ग़ज़ल से हटा देता हूँ। सादर। </span></p> //जिन्हें' को हटा कर तुम्हें…tag:openbooksonline.com,2020-06-14:5170231:Comment:10103072020-06-14T13:34:37.547ZSamar kabeerhttp://openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p><span>//जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है//</span></p>
<p><span>"तुम्हें" का वज़्न भी 12 ही होता है ।</span></p>
<p><span>//जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है//</span></p>
<p><span>"तुम्हें" का वज़्न भी 12 ही होता है ।</span></p> //'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'…tag:openbooksonline.com,2020-06-14:5170231:Comment:10100062020-06-14T13:18:30.953Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>//'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'</p>
<p>एक बात बताना भूल गया था कि ये मिसरा बह्र में नहीं है,क्योंकि 'जिन्हें' शब्द का वज़्न 12 होता है ।</p>
<p>जी, जनाब बहुत शुक्रिया, 'जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है। </p>
<p>//'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'</p>
<p>एक बात बताना भूल गया था कि ये मिसरा बह्र में नहीं है,क्योंकि 'जिन्हें' शब्द का वज़्न 12 होता है ।</p>
<p>जी, जनाब बहुत शुक्रिया, 'जिन्हें' को हटा कर तुम्हें कर दिया है। </p> 'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'
ए…tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:Comment:10096882020-06-13T13:21:08.802ZSamar kabeerhttp://openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p><span>'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'</span></p>
<p>एक बात बताना भूल गया था कि ये मिसरा बह्र में नहीं है,क्योंकि 'जिन्हें' शब्द का वज़्न 12 होता है ।</p>
<p><span>'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त'</span></p>
<p>एक बात बताना भूल गया था कि ये मिसरा बह्र में नहीं है,क्योंकि 'जिन्हें' शब्द का वज़्न 12 होता है ।</p> मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, आ…tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:Comment:10100102020-06-13T12:37:44.425Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, आदाब।</p>
<p>ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया ।</p>
<p>जी, मैंने ये मुसल्सल ग़ज़ल कहने की कोशिश की है जो बाद:-ए-चश्म-ए-जानाँ के उन्वान पर मबनी है और शेअ'र </p>
<p>//ये हमारा रब्त देखो *बिन मिलाए पी रहे हैं' में यही कहने की कोशिश की है कि महबूब से नज़रें न मिलने पर भी अपने रब्त से. बाद:-ए-चश्म-ए-जानाँ का लुत्फ ले रहे हैं। </p>
<p>//जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त</p>
<p>हम उन्हीं को जी रहे हैं' इस शेअ'र का भाव यही है कि जिस महबूब…</p>
<p>मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, आदाब।</p>
<p>ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया ।</p>
<p>जी, मैंने ये मुसल्सल ग़ज़ल कहने की कोशिश की है जो बाद:-ए-चश्म-ए-जानाँ के उन्वान पर मबनी है और शेअ'र </p>
<p>//ये हमारा रब्त देखो *बिन मिलाए पी रहे हैं' में यही कहने की कोशिश की है कि महबूब से नज़रें न मिलने पर भी अपने रब्त से. बाद:-ए-चश्म-ए-जानाँ का लुत्फ ले रहे हैं। </p>
<p>//जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त</p>
<p>हम उन्हीं को जी रहे हैं' इस शेअ'र का भाव यही है कि जिस महबूब की चाहत लिए हम ज़िन्दगी जी रहे हैं वो किसी और पर मेहरबान है। बाक़ी चीज़ें दुरुुस्त करने की कोशिश करता हूूँ। </p>
<p> </p>
<p></p> जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब…tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:Comment:10099692020-06-13T10:14:38.109ZSamar kabeerhttp://openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p>जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,और चर्चा भी अच्छी हुई है,बधाई स्वीकार करें ।</p>
<p>'ये हमारा रब्त देखो</p>
<p>बिन मिलाए पी रहे हैं'</p>
<p>इस शैर के ऊला मिसरे में 'रब्त' शब्द काम नहीं कर रहा है,क्योंकि सुना है कि बिना पानी या सौड़ा मिलाए पीना हर आदमी के बस की बात नहीं,जो आदी शराबी हैं वही ऐसा कर सकते हैं,इस लिहाज़ से उचित लगे तो ऊला यूँ कर सकते हैं:-</p>
<p>'ये हमारा हौसला है'</p>
<p><span>'कोई रिन्द तो नहीं हम'</span></p>
<p><span>इस मिसरे को रवानी में लाने के लिए…</span></p>
<p>जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,और चर्चा भी अच्छी हुई है,बधाई स्वीकार करें ।</p>
<p>'ये हमारा रब्त देखो</p>
<p>बिन मिलाए पी रहे हैं'</p>
<p>इस शैर के ऊला मिसरे में 'रब्त' शब्द काम नहीं कर रहा है,क्योंकि सुना है कि बिना पानी या सौड़ा मिलाए पीना हर आदमी के बस की बात नहीं,जो आदी शराबी हैं वही ऐसा कर सकते हैं,इस लिहाज़ से उचित लगे तो ऊला यूँ कर सकते हैं:-</p>
<p>'ये हमारा हौसला है'</p>
<p><span>'कोई रिन्द तो नहीं हम'</span></p>
<p><span>इस मिसरे को रवानी में लाने के लिए यूँ कह सकते हैं:-</span></p>
<p><span>'हम नहीं हैं रिन्द कोई'</span></p>
<p></p>
<p>'जिन्हें ग़ैर से है उल्फ़त</p>
<p>हम उन्हीं को जी रहे हैं'</p>
<p>इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हुआ ।</p>
<p></p>
<p>'बेख़ुदों की ज़िन्दगी ये'</p>
<p>इस मिसरे में 'बेख़ुदों' </p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p>कोई शब्द ही नहीं,बदलने का प्रयास करें ।</p>
<p></p>
<p><span>'इस उम्मीद जी रहे हैं'</span></p>
<p><span>इस मिसरे के 'उम्मीद' शब्द पर जनाब रवि भसीन जी विस्तार से बता चुके हैं ।</span></p>
<p></p>
<p><span>'निग्हें जो झुकी हुई हैं'</span></p>
<p><span>इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-</span></p>
<p>'दूसरों से पी रहे हैं'</p>
<p></p>
<p></p>
<p></p>
<p></p> आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब…tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:Comment:10097952020-06-13T07:21:51.421Zअमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवीhttp://openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz
<p>आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब।</p>
<p>ख़ाक़सार को इतना क़ीमती वक़्त और इतनी ज़्यादा तवज्जो देने के लिए मैं आपका एहसानमंद हूँ।</p>
<p>जी मैंने भी अर्ज़ किया था कि मैं आपसे मुतफ्फ़िक़ हूँ। दरअसल मैंने कच्चे ड्राफ्ट में भी "उमीद" ही लिखा था, मगर फिर कन्फ्यूज़न की वज्ह से "उम्मीद" टाईप कर दिया। बहरहाल मैंने उस्ताद मुहतरम से भी गुज़ारिश की है, अब उन की नज़र ए इनायत का इंतजा़र है।</p>
<p>//क्या पिलायेंगे हमें जो</p>
<p>तिश्नगी में जी रहे हैं//</p>
<p>आपका ये शेअ'र ग़ज़ल के ऐतबार से बहुत…</p>
<p>आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब।</p>
<p>ख़ाक़सार को इतना क़ीमती वक़्त और इतनी ज़्यादा तवज्जो देने के लिए मैं आपका एहसानमंद हूँ।</p>
<p>जी मैंने भी अर्ज़ किया था कि मैं आपसे मुतफ्फ़िक़ हूँ। दरअसल मैंने कच्चे ड्राफ्ट में भी "उमीद" ही लिखा था, मगर फिर कन्फ्यूज़न की वज्ह से "उम्मीद" टाईप कर दिया। बहरहाल मैंने उस्ताद मुहतरम से भी गुज़ारिश की है, अब उन की नज़र ए इनायत का इंतजा़र है।</p>
<p>//क्या पिलायेंगे हमें जो</p>
<p>तिश्नगी में जी रहे हैं//</p>
<p>आपका ये शेअ'र ग़ज़ल के ऐतबार से बहुत मौज़ूँ है, बहुत बहुत शुक्रिया।</p> आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहि…tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:Comment:10096682020-06-13T05:33:09.412Zरवि भसीन 'शाहिद'http://openbooksonline.com/profile/RaviBhasin
<p>आदरणीय<span> </span><a class="fn url" href="http://www.openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz">अमीरुद्दीन 'अमीर'</a><span> </span>साहिब, आदाब अर्ज़ करता हूँ।<br></br>//क्या पिलाएंगी हमें वो<br></br>निग्हें जो झुकी हुई हैं<br></br>इस शेअ'र में ग़लती से रदीफ़ बदल गयी है, शेअ'र हटाने की सोच रहा हूँ। आपसे भी मदद की दरख़्वास्त है।//</p>
<p><br></br>जी जनाब-ए-आली, बन्दा-ए-ख़ाकसार का हक़ीर सा मशवरा हाज़िर है:<br></br>212 / 1212 / 2<br></br>क्या पिलायेंगे हमें जो<br></br>तिश्नगी में जी रहे हैं<br></br>लेकिन अगर आपको लगता है कि 'जी'…</p>
<p>आदरणीय<span> </span><a href="http://www.openbooksonline.com/profile/0q7lh6g5bl2lz" class="fn url">अमीरुद्दीन 'अमीर'</a><span> </span>साहिब, आदाब अर्ज़ करता हूँ।<br/>//क्या पिलाएंगी हमें वो<br/>निग्हें जो झुकी हुई हैं<br/>इस शेअ'र में ग़लती से रदीफ़ बदल गयी है, शेअ'र हटाने की सोच रहा हूँ। आपसे भी मदद की दरख़्वास्त है।//</p>
<p><br/>जी जनाब-ए-आली, बन्दा-ए-ख़ाकसार का हक़ीर सा मशवरा हाज़िर है:<br/>212 / 1212 / 2<br/>क्या पिलायेंगे हमें जो<br/>तिश्नगी में जी रहे हैं<br/>लेकिन अगर आपको लगता है कि 'जी' क़ाफ़िया आप एक बार ग़ज़ल में इस्तेमाल कर चुके हैं तो:<br/>212 / 1212 / 2<br/>क्या पिलायेंगे जो ता-उम्र<br/>ख़ुश्क सी नदी रहे हैं<br/>(ऊला में एक अतिरिक्त साकिन लिया है)<br/>आप उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब की राय लेने के बाद शे'र में बदलाव कर दीजियेगा।</p>
<p></p>
<p>//जी मैं आप से सहमत हूँ। मगर यहीं ओ बी ओ पर मेरे एक उस्ताद-दोस्त ने मेरी एक ग़ज़ल पर इस्लाह पर मुझे बताया था कि :जब आपके अश'आर की तक़ती'अ की जाएगी तो इन अल्फ़ाज़ को उस तरह से पढ़ा जाएगा जिस तरह आपने लिखा है, लेकिन हुज़ूर जब आप अपनी ग़ज़ल लिखित रूप में पेश करेंगे हैं तो उसमें साधारण हिज्जे ही लिखेंगे, जो आम लोग पढ़ सकें, और जिनमें से बहुत से ऐसे होंगे जिन्हें अरूज़ और तक़ती'अ की समझ नहीं होगी।//</p>
<p><br/>आदरणीय, ये बात कुछ हद तक सहीह है कि शाइरी में छोटे अलफ़ाज़ लिखते समय तक़्ती'अ वाले हिज्जे नहीं लिखे जाते। उदाहरण के तौर पे:<br/> 'तेरी' 22 को जब 11 के वज़्न पर लेते हैं तो 'तिरि' नहीं लिखते<br/> 'मेरी' 22 को जब 11 के वज़्न पर लेते हैं तो उसे 'मिरि' नहीं लिखते<br/> 'वफ़ा' 12 को जब 11 के वज़्न पर लेते हैं तो उसे 'वफ़अ्' जैसा कुछ नहीं लिखते<br/>इस का एक कारण शायद ये है कि 'तिरि', 'मिरि' जैसे अजीब-ओ-ग़रीब हिज्जे किसी ने देखे ही नहीं होते और पढ़ने वाले चक्कर में पड़ जाते हैं। दूसरा कारण ये है कि शाइरी की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले पाठक भी छोटे अलफ़ाज़ को बह्र की लय में पढ़ लेते हैं।</p>
<p></p>
<p>लेकिन दूसरी ओर लम्बे अलफ़ाज़ इस्तेमाल करते समय शाइर का फ़र्ज़ बन जाता है कि वो हिज्जों से लफ़्ज़ का वज़्न पढ़ने वाले को वाज़ेह कर दे, ताकि उस पे बे-बह्र होने का संगीन इल्ज़ाम न लगने पाये। मिसाल की तौर पे:<br/> 'राहगुज़र' 2112 को जब 212 के वज़्न पर लेना हो तो उसे 'रहगुज़र' लिखा जाता है<br/> 'रखा' 12 को जब 22 के वज़्न पे लेना हो तो उसे 'रक्खा' लिखा जाता है<br/> 'रास्ता' 212 को जब 22 के वज़्न पे लेना हो तो उसे 'रस्ता' लिखा जाता है<br/> 'गुनाहगार' 12121 को जब 1221 के वज़्न पे लेना हो तो उसे 'गुनहगार' लिखा जाता है</p>
<p></p>
<p>अब देखिये, अल्लामा इक़बाल साहिब का ये शे'र:<br/>221 / 2121 / 1221 / 212<br/>सौ सौ उमीदें बँधती हैं इक इक निगाह पर <br/>मुझ को न ऐसे प्यार से देखा करे कोई <br/>आप अगर rekhta.org पे जाकर ये शे'र ढूँढेंगे तो हिंदी, अंग्रेज़ी, और उर्दू तीनों ज़बानों में हिज्जे 'उमीदें' ही पायेंगे, 'उम्मीदें' नहीं, क्यूँकि इस शे'र में इसे 121 के वज़्न में बाँधा गया है। इस नाचीज़ ने आप से इसी लिये हिज्जे बदलने की गुज़ारिश की थी।</p>
<p></p>
<p>हकीम नासिर साहिब की मशहूर ग़ज़ल जो आबिदा परवीन साहिबा ने गाई है:<br/>2122 / 1122 / 1122 / 22<br/>जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है <br/>संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है <br/>ये ग़ज़ल भी अगर आप rekhta.org या किसी और अच्छी website पे तलाश करेंगे तो हिज्जे 'रक्खा' ही मिलेंगे, क्यूँकि इस ग़ज़ल की रदीफ़ में ही इस लफ़्ज़ को 22 के वज़्न पे बाँधा गया है।</p>
<p></p>
<p>बहरहाल, आपने एक वाजिब सवाल और गंभीर मुद्दआ उठाया है। इस पर उस्ताद-ए-मुहतरम की टिप्पणी का इन्तेज़ार रहेगा।</p>