Comments - चिंतन और आकलन: हम और हमारी हिन्दी संजीव सलिल' - Open Books Online2024-03-28T19:51:41Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A11485&xn_auth=noमनोजजी, बहुत अच्छी बात यह है…tag:openbooksonline.com,2010-07-29:5170231:Comment:119172010-07-29T13:56:57.917ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
मनोजजी, बहुत अच्छी बात यह है कि आप उस स्थान पर हैं जहाँ मैं ढाई वर्ष पूर्व तक था... और उस समाज का हिस्सा था बिना तमिळ जाने.<br />
ऐसा क्यों होता है कि बहुत बड़ी संख्या उन दक्षिण भारतीयों की है जो विश्व के अन्य देशों या कहिए अमेरिका, थाईलैण्ड, सिंगापुर आदि में असानी से चले जाते हैं और खूब जाते हैं, किन्तु उनकी संख्या उत्तर भारत के शहरों में कुछ हद तक दिल्ली या मुम्बई को छोड़ कर उत्साहवर्द्धक नहीं है.<br />
आप यदि दक्षिण भारत के राज्यों में से किसी एक में हैं तो मेरा एक अनुरोध है.. आप उस राज्य की हवा-पानी में…
मनोजजी, बहुत अच्छी बात यह है कि आप उस स्थान पर हैं जहाँ मैं ढाई वर्ष पूर्व तक था... और उस समाज का हिस्सा था बिना तमिळ जाने.<br />
ऐसा क्यों होता है कि बहुत बड़ी संख्या उन दक्षिण भारतीयों की है जो विश्व के अन्य देशों या कहिए अमेरिका, थाईलैण्ड, सिंगापुर आदि में असानी से चले जाते हैं और खूब जाते हैं, किन्तु उनकी संख्या उत्तर भारत के शहरों में कुछ हद तक दिल्ली या मुम्बई को छोड़ कर उत्साहवर्द्धक नहीं है.<br />
आप यदि दक्षिण भारत के राज्यों में से किसी एक में हैं तो मेरा एक अनुरोध है.. आप उस राज्य की हवा-पानी में रहें. बिहार के बाहर एक बिहार या यूपी के बाहर एक यूपी या राजस्थान के बाहर एक राजस्थान में कत्तई न रहें. न इस तरह के तथाकथित किसी माहौल के पीछे जायँ. इस तरह की मानसिकता हमें न सिर्फ़ अलहदा रखती है, हम उस मिट्टी से आवश्यक खाद-पानी भी नहीं ले पाते. एक तरह से हम छोटे-छोटे गमलों में लगे पौधों की जिन्दगी जीते रहने को अभिशप्त हो जाते हैं.<br />
मैंने पिछले संदेश में भी अनुरोध किया है और पुनः अनुरोध कर रहा हूँ.. <b>हम यदि स्वीकार करने लगते हैं तो स्वयं ही स्वीकृत भी होने लगते हैं</b>.<br />
जहाँ तक सिनेमा हॉलों या टिकट आदि की बात है तो तमिळ समाज की पृष्ठभूमि को जानिए. सब समझ में आ जाएगा. वैसे आप इसी माध्यम के द्वारा हमें अवश्य बताइएगा, कि, आप तमिळनाडु या किसी दक्षिण भारतीय राज्य में कितने वर्षों से हैं. मनोज भाई आप उनकी पीड़ा का अंदा…tag:openbooksonline.com,2010-07-29:5170231:Comment:119152010-07-29T12:58:44.915Zsanjiv verma 'salil'http://openbooksonline.com/profile/sanjivvermasalil
मनोज भाई आप उनकी पीड़ा का अंदाज़ लगायें जो आपके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश की स्वतंत्रता के लिये लड़े, जिन्होंने उस समय हिंदी को अपनाया जब हिंदीवाले अग्रेजों के तलवे चाटकर रायसाहबी ले रहे थे. स्वतंत्रता के बाद उन्हें बदले में मिला त्रिभाषा सूत्र और उसके पीछे हिंदीभाषी नेताओं की भेद-भाव भरी छलना. उनकी जगह आप होते तो क्या आप भी यही नहीं करते. हमने तब भी केवल अपने हित और दृष्टिकोण को सही समझा और अब भी यही कर रहे हैं. दक्षिण में हिन्दी के बिना पुते नाम पट हजार में से दस-पाँच आज भी मिल जायेंगे पर…
मनोज भाई आप उनकी पीड़ा का अंदाज़ लगायें जो आपके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश की स्वतंत्रता के लिये लड़े, जिन्होंने उस समय हिंदी को अपनाया जब हिंदीवाले अग्रेजों के तलवे चाटकर रायसाहबी ले रहे थे. स्वतंत्रता के बाद उन्हें बदले में मिला त्रिभाषा सूत्र और उसके पीछे हिंदीभाषी नेताओं की भेद-भाव भरी छलना. उनकी जगह आप होते तो क्या आप भी यही नहीं करते. हमने तब भी केवल अपने हित और दृष्टिकोण को सही समझा और अब भी यही कर रहे हैं. दक्षिण में हिन्दी के बिना पुते नाम पट हजार में से दस-पाँच आज भी मिल जायेंगे पर उत्तर भारत में अंगरेजी को छोड़ कर किसी दूसरी अहिन्दी भाषा का एक भी नाम पट नहीं है. दक्षिण में हिन्दी सिखानेवाली अनेक संस्थाएं और पुस्तकालय हैं पर उत्तर भारत में अन्ग्रेजी के अलावा कोई भी अन्य भारतीय हशा सिखानेवाली कोई संस्था मैंने आज तक नहीं देखी. कहा गया है कि दूर का ढोल ही स…tag:openbooksonline.com,2010-07-29:5170231:Comment:118812010-07-29T06:36:45.881ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
<i>कहा गया है कि दूर का ढोल ही सुहाना नहीं होता दूर की हर चीज सुहानी होती है. बुरा मत मानियेगा, आप तो दूर में बैठे हैं इसलिए लगता है कि तमिलनाडु में हिन्दी के विद्वान है और वहाँ हिन्दी सम्मानित है या उसे राष्ट्रभाषा जैसा सम्मान मिलता है. मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि एक बार यहाँ आकर मेरे साथ क्षेत्र का दौरा करें फिर उसकी समीक्षा.</i><br />
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मनोजजी, तमिळनाडु में मैंने अपने जीवन के करीब बारह वर्ष गुजारे हैं. मैं जब नया था तो तिरुनिन्ड्रवुर या तिरुवल्लिकेणी जैसी जगहों के नाम लेने में खासी दिक्कत होती…
<i>कहा गया है कि दूर का ढोल ही सुहाना नहीं होता दूर की हर चीज सुहानी होती है. बुरा मत मानियेगा, आप तो दूर में बैठे हैं इसलिए लगता है कि तमिलनाडु में हिन्दी के विद्वान है और वहाँ हिन्दी सम्मानित है या उसे राष्ट्रभाषा जैसा सम्मान मिलता है. मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि एक बार यहाँ आकर मेरे साथ क्षेत्र का दौरा करें फिर उसकी समीक्षा.</i><br />
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मनोजजी, तमिळनाडु में मैंने अपने जीवन के करीब बारह वर्ष गुजारे हैं. मैं जब नया था तो तिरुनिन्ड्रवुर या तिरुवल्लिकेणी जैसी जगहों के नाम लेने में खासी दिक्कत होती थी. हैदराबाद (सिकन्दराबाद) में मेरे करीब ढाई वर्ष गुजरे हैं. कहने का अर्थ है ये नहीं कि मैं अपने को थोप रहा हूँ. जिस माहौल में था वो अत्याधुनिक टेक्नोलोजी (आइ-टी/सॉफ्टवेयर) का था. किन्तु, अपने जैसे ही मित्रों और कार्यकर्ताओं के सहवास में मैंने धुर ग्रामीण परिवेश में अनवरत कार्य किया है. अब इस पृष्ठभूमि को जान कर मेरी प्रतिक्रिया को पढ़ें. मैंने उन ग्यारह-बारह वर्षों में बहुत कुछ देखा-जाना है और छटपटा कर महसूस किया है.<br />
हमने उत्तर भारत में क्या बचा कर रखा है और कैसे अपनी भाषा और संस्कार या परम्पराओं को निभाते हैं.. इन सभी को बड़ी शिद्दत से गुना हैं मैने. इस तरह के व्यवहार के पीछे की समझ और मानसिकता या कारणों तक पर मंथन किया है. न हम गलत हैं/थे, न वो उच्चग्रंथि से युक्त हैं. फिरभी अपनी तरफ के लोगों के हर फरदरेंस में अपनाए जा रहे कैजुअल व्यवहार पर उनसे तुलना कर कितनी ही दफ़े शर्मिंदगी महसूस की है. क्योंकि मैं भी उसी व्यवस्था और मानसिकता की उपज हूँ/था. माननीय सलिलजी जब कहते हैं कि हम उत्तरभारतीयों ने उनके लिहाज से क्या सीखा है तो संभवतः उनका इशारा भी इसी ओर है. अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने परिवेश के प्रति आत्मसम्मान का क्या अर्थ होता है यह भी महसूस किया है, जाना है. मजाक-मजाक में तमिळ-भाषा के प्रति कहे गये मेरे वाक्य ने मुझे हफ़्तों तनखैया घोषित करा दिया था.<br />
तमिळ या दक्षिण के भाइयों को किसी भाषा को सीखने से कोई गुरेज नहीं है. रामेश्वर, मदुरै, कन्याकुमारी, चेन्नै, सेलम जैसी बड़ी (व्यावसायिक) जगहें ही नहीं छोटे-छोटे कस्बों, पक्कमों, पाकमों में मैं बिना कायदे की तमिळ जाने मैने व्यवहार बरता है. और रही हिन्दी की बात तो चेन्नै के सिनेमाहालों के नाम गिना दूँगा जहँ सिर्फ या अक्सर हिन्दी फिल्में लगती रहती हैं. और हिन्दी फिल्में क्षेत्र विशेष की हिन्दी के प्रति नब्ज़ टटोटलने का स्टैंडर्ड तो नहीं किन्तु जरिया अवश्य हैं. हम अपनाना प्रारंभ करें, स्वयं स्वीकृत होते चले जाएंगे. आप ने जो विसंगतियां इंगित की…tag:openbooksonline.com,2010-07-29:5170231:Comment:118762010-07-29T04:56:49.876Zsanjiv verma 'salil'http://openbooksonline.com/profile/sanjivvermasalil
आप ने जो विसंगतियां इंगित की हैं वे त्रिभाषा सूत्र से दक्षिण को छलने के बाद और उसी से उपजी हैं. केंद्र हिन्दी लेखन को प्रोत्सहित तो कर रहा है. हिन्दी भाषी प्रदेशों में तो हिंदी की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाएं एक-एक विज्ञापन को मोहताज होकर दम तोड़ रही हैं. हिन्दी परीक्षा पास करने के लिये ही सही पढी और पढ़ाई तो जारही है. हम दक्षिण की किसी भाषा को पढने के लिये उत्तर में आज़ादी के ६३ साल बाद भी शुरुआत तक नहीं कर पाये.<br />
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छद्म नाम से ही सही काम कर दाम तो मिल सकता है... छद्म करने के लिये करने और…
आप ने जो विसंगतियां इंगित की हैं वे त्रिभाषा सूत्र से दक्षिण को छलने के बाद और उसी से उपजी हैं. केंद्र हिन्दी लेखन को प्रोत्सहित तो कर रहा है. हिन्दी भाषी प्रदेशों में तो हिंदी की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाएं एक-एक विज्ञापन को मोहताज होकर दम तोड़ रही हैं. हिन्दी परीक्षा पास करने के लिये ही सही पढी और पढ़ाई तो जारही है. हम दक्षिण की किसी भाषा को पढने के लिये उत्तर में आज़ादी के ६३ साल बाद भी शुरुआत तक नहीं कर पाये.<br />
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छद्म नाम से ही सही काम कर दाम तो मिल सकता है... छद्म करने के लिये करने और करनेवाला दोनों समान दोषी हैं. मेरा प्रश्न यह है कि भारत में बोली जानेवाली सभी भाषाएँ और बोलियाँ भारत वाणी हैं या नहीं? हैं तो हम दक्षिण में उत्तर की भाषा ले जाते समय दक्षिण या पूर्व या पश्चिम की किसी भाषा को क्यों नहीं लाते? हिन्दी भाषी राज्यों का सारा शासन-प्रशासन अंगरेजी में करते हैं और दक्षिण से चाहते हैं वे हिन्दीभाषी हो जाएँ. बेईमान उत्तर के नेता और प्रशासनिक अफसर हैं जो जनता को ठगते-लड़ाते हैं.<br />
आज उत्तर में जनता को अंगरेजी रोजगार में सहायक और हिंदी सहभाषाओं सहित बाधक क्यों लगती है जबकि इन क्षेत्रों में जनता इन्हीं भाषाओँ को समझती-चाहती है.<br />
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अगर सारी जनता अंगरेजी का बहिष्कार कर दे तो क्या वह एक दिन भी टिक पायेगी? हम दूकान का नाम पटल अंगरेजी में लिखें जबकि हमारा ग्राहक अंगरेजी नहीं जानता और दक्षिणवालों से चाहें कि वे हिन्दी नाम पट लगायें जबकि उनका ग्राहक हिन्दी नहीं जानता कितना उचित है? हिन्दी भाषियों को चहिये कि अपने क्षेत्रों में कार्यालयों, विद्यालयों, न्यायालयों में हिन्दी के आलावा अन्य भाषा न चलने दें. सभी वकील मध्यमवर्ग से आने और हिन्दी माध्यम से पढने के बाद भी कचहरी का काम अंगरेजी में क्यों करते है? क्या हिन्दीकरण के लिये भी अमेरिका से दबाव चाहिए? "..दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा,…tag:openbooksonline.com,2010-07-28:5170231:Comment:117392010-07-28T03:54:01.739ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
"..दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाता..."<br />
भाईजी, आपने हठात् छुआ वहाँ, सबसे अधिक दुखे जहाँ. मैंने स्वयं को देखा आपकी इन पंक्तियों में. टी.नगर, चेन्नै की हिन्दी प्रचारिणी सभा अतयंत श्लाघनीय कार्य कर रही है. बहुत वर्ष मैंने भारतवर्ष के धुर दक्षिण में गुजारे हैं. हिन्दी का विरोध जहाँ भी है,…
"..दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाता..."<br />
भाईजी, आपने हठात् छुआ वहाँ, सबसे अधिक दुखे जहाँ. मैंने स्वयं को देखा आपकी इन पंक्तियों में. टी.नगर, चेन्नै की हिन्दी प्रचारिणी सभा अतयंत श्लाघनीय कार्य कर रही है. बहुत वर्ष मैंने भारतवर्ष के धुर दक्षिण में गुजारे हैं. हिन्दी का विरोध जहाँ भी है, राजनीतिक है. या, जहाँ साठ-सत्तर के दशक की घिनौनी प्रतिक्रिया बची है.<br />
भाषा वही टिकती है अथवा जनता द्वारा स्वीकृत वही होती है जिसके माध्यम से रोजी-रोटी चले या सामाजिक प्रतिष्ठा मिले. अन्यथा, एक समय शासकों की और कार्यालयों की भाषा फ़ारसी के लिए भी कहावत चली थी.. पढ़े फ़ारसी बेचे तेल, देखो ये कुदरत का खेल. अंग्रेज़ी का शामियाना तब नया-नया फैलना प्रारंभ हुआ था. जैसा और जितना बड़ा बाज़ार उसके उतने अनुगामी. अमेरिका आज हिन्दी की वकालत कर रहा है तो उसके पीछे तो हमारा विस्तार और बाज़ार ही तो है. ये हमारी गुलामी प्रवृति है जो हमें हीनता से ग्रस्त रखती है. या यह सोचने को बाध्य करती है कि बिना अंग्रेज़ी भाषा के व्यावसायिक जीवन अंधकारमय हो जाएगा.<br />
एक विचारोत्तेजक लेख के लिए आभार. कभी नहीं से देर भली... जब जाग…tag:openbooksonline.com,2010-07-27:5170231:Comment:115492010-07-27T05:20:28.549ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<i>कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.</i><br />
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श्रध्येय आचार्य जी प्रणाम, आप की लिखी हुई बातो से मैं अक्षरश: सहमत हूँ , बात सही है कि…
<i>कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.</i><br />
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श्रध्येय आचार्य जी प्रणाम, आप की लिखी हुई बातो से मैं अक्षरश: सहमत हूँ , बात सही है कि विज्ञान की कठिन सूत्रों को रटने के चक्कर में हम मे से कई लोग (जिसमे मैं भी शामिल हूँ) हिंदी का ज्ञान भूल गये, गुरुजन भी कहते रहे की विज्ञान और गणित पर ध्यान दो आगे जाकर वही काम देगा, उनकी भी बात गलत तो नहीं थी , आगे जाकर वही विषय रोजी रोटी मे सहायक हुई, किन्तु दिल के किसी कोने मे टिस जरूर उठता है कि मैं कोई भी भाषा शुद्ध नहीं जान पाया,<br />
आज मैने ओपन बुक्स ऑनलाइन का मंच यहि सोच के साथ तैयार किया हूँ कि आप जैसे और भी लोगो के सानिध्य मे रहकर हम सभी एक दुसरे से कुछ सीखे तथा एक ऐसा माहौल तैयार करे जिससे जो साथी नहीं भी लिखते हो वो भी लिखने लगे,<br />
बहुत बहुत धन्यवाद है आचार्य जी इस भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद लेख के लिये, हमे गर्व है कि OBO परिवार को आप जैसे गुणी अभियंता का आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है ,