Comments - व्यंग्य रचना: दीवाली : कुछ शब्द चित्र: संजीव 'सलिल' - Open Books Online2024-03-28T22:38:27Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A161791&xn_auth=noअच्छी है !tag:openbooksonline.com,2011-11-13:5170231:Comment:1666182011-11-13T13:40:00.390ZVinay Kullhttp://openbooksonline.com/profile/VinayBhushanKull
<p>अच्छी है !</p>
<p>अच्छी है !</p> आदरणीय आचार्य जी ! आज के इस क…tag:openbooksonline.com,2011-11-01:5170231:Comment:1633522011-11-01T18:02:33.620ZEr. Ambarish Srivastavahttp://openbooksonline.com/profile/AmbarishSrivastava
<p>आदरणीय आचार्य जी ! आज के इस कठिन दौर में दीवाली जैसे विषय पर पर इस सशक्त व अनमोल व्यंग्य रचना के लिए आपको साधुवाद ! सादर:</p>
<p>आदरणीय आचार्य जी ! आज के इस कठिन दौर में दीवाली जैसे विषय पर पर इस सशक्त व अनमोल व्यंग्य रचना के लिए आपको साधुवाद ! सादर:</p> अच्छी रचना इसमें सामायिक मुद्…tag:openbooksonline.com,2011-10-30:5170231:Comment:1629812011-10-30T08:38:55.967ZAbhinav Arunhttp://openbooksonline.com/profile/ArunKumarPandeyAbhinav
<p>अच्छी रचना इसमें सामायिक मुद्दों को शामिल करने का निराला अंदाज़ वाह वाह बहुत khoob दीप पर्व की hardik बधाई आचार्यवर !!...</p>
<p>अच्छी रचना इसमें सामायिक मुद्दों को शामिल करने का निराला अंदाज़ वाह वाह बहुत khoob दीप पर्व की hardik बधाई आचार्यवर !!...</p> दीवाली मात्र पर्व नहीं हमारे…tag:openbooksonline.com,2011-10-30:5170231:Comment:1629792011-10-30T08:22:12.371ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
<p>दीवाली मात्र पर्व नहीं हमारे समाज का प्रमुख उत्सव भी है सो बेजोड़ त्यौहार है. आचार्य सलिलजी ने इसके सामाजिक पक्ष को उजागर करने की कोशिश की. और हताशा भरे महौल में आम आदमी के लिये इसका मनाना कितना दुष्कर होता जा रहा है इस ओर इशारा किया है. किन्तु, मेरी समझ से आचार्य जी की प्रतिष्ठा और गहन अध्ययन के अनुरूप इस रचना को और अभी कसा जाना था.</p>
<p>इस रचना के प्रारूप से मानसिक पिपासा चूँकि बहुत कुछ अतृप्त ही रह गयी है, एक पाठक के तौर पर हम कवि से कुछ और बेहतर के लिये सादर निवेदन कर सकते हैं.</p>
<p>दीवाली मात्र पर्व नहीं हमारे समाज का प्रमुख उत्सव भी है सो बेजोड़ त्यौहार है. आचार्य सलिलजी ने इसके सामाजिक पक्ष को उजागर करने की कोशिश की. और हताशा भरे महौल में आम आदमी के लिये इसका मनाना कितना दुष्कर होता जा रहा है इस ओर इशारा किया है. किन्तु, मेरी समझ से आचार्य जी की प्रतिष्ठा और गहन अध्ययन के अनुरूप इस रचना को और अभी कसा जाना था.</p>
<p>इस रचना के प्रारूप से मानसिक पिपासा चूँकि बहुत कुछ अतृप्त ही रह गयी है, एक पाठक के तौर पर हम कवि से कुछ और बेहतर के लिये सादर निवेदन कर सकते हैं.</p>