Comments - ग़ज़ल....दुआयें साथ हैं माँ की वगरना मर गये होते-बृजेश कुमार 'ब्रज' - Open Books Online2024-03-28T15:17:32Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A876497&xn_auth=noस्नेहमयी टिप्पड़ी के लिए आपका…tag:openbooksonline.com,2017-09-02:5170231:Comment:8788612017-09-02T18:08:41.748Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
स्नेहमयी टिप्पड़ी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमण धामी जी..सादर
स्नेहमयी टिप्पड़ी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमण धामी जी..सादर आ. बृजेश भाई जी, हार्दिक बधाई…tag:openbooksonline.com,2017-09-02:5170231:Comment:8785822017-09-02T06:36:55.246Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooksonline.com/profile/laxmandhami
आ. बृजेश भाई जी, हार्दिक बधाई ।
आ. बृजेश भाई जी, हार्दिक बधाई । आभार आदरणीय नीरज जी..आपका सुझ…tag:openbooksonline.com,2017-08-31:5170231:Comment:8781702017-08-31T14:23:33.393Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
आभार आदरणीय नीरज जी..आपका सुझाव खूबसूरत है..विशेषकर सानी।
आभार आदरणीय नीरज जी..आपका सुझाव खूबसूरत है..विशेषकर सानी। आदरणीय नीरज जी,
हार्दिक आभार.…tag:openbooksonline.com,2017-08-30:5170231:Comment:8773532017-08-30T11:20:54.353ZNiraj Kumarhttp://openbooksonline.com/profile/NirajKumar406
<p>आदरणीय नीरज जी,</p>
<p>हार्दिक आभार. जल्दी में एक 'ऐ' छूट गया था : </p>
<p></p>
<p><span>वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू ऐ हमदम </span><br/><span>हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते</span></p>
<p></p>
<p>सादर </p>
<p>आदरणीय नीरज जी,</p>
<p>हार्दिक आभार. जल्दी में एक 'ऐ' छूट गया था : </p>
<p></p>
<p><span>वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू ऐ हमदम </span><br/><span>हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते</span></p>
<p></p>
<p>सादर </p> आदरणीय नीरज जी रचना पटल पे आप…tag:openbooksonline.com,2017-08-30:5170231:Comment:8772682017-08-30T09:14:57.083Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
आदरणीय नीरज जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन है।जी आदरणीय व्याकरणिक दृष्टि से ये उचित नहीं है।दरअसल पहले 'रगें तक' था आदरणीय समर जी की सलाह पे 'तक' को 'को' किया।लेकिन रगें भूलवश रह गया।सुधार करता हूँ।दूसरे शेर के लिए आपका सुझाव खूबसूरत है लेकिन बहर से खारिज है..सादर
आदरणीय नीरज जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन है।जी आदरणीय व्याकरणिक दृष्टि से ये उचित नहीं है।दरअसल पहले 'रगें तक' था आदरणीय समर जी की सलाह पे 'तक' को 'को' किया।लेकिन रगें भूलवश रह गया।सुधार करता हूँ।दूसरे शेर के लिए आपका सुझाव खूबसूरत है लेकिन बहर से खारिज है..सादर आदरणीय राज नवादवी जी आपको ग़ज़ल…tag:openbooksonline.com,2017-08-30:5170231:Comment:8772672017-08-30T09:09:35.632Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
आदरणीय राज नवादवी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा सौभाग्य है..आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय राज नवादवी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा सौभाग्य है..आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय बृजेश जी,
खूबसूरत ग़ज़ल…tag:openbooksonline.com,2017-08-29:5170231:Comment:8769182017-08-29T12:35:39.194ZNiraj Kumarhttp://openbooksonline.com/profile/NirajKumar406
<p>आदरणीय बृजेश जी,</p>
<p>खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.</p>
<p>'रगें को' व्याकरणिक रूप से गलत है 'रगों को' कर लें.</p>
<p>और अगर अच्छा लगे तो दूसरे शेर को कुछ यूं कर सकते है :</p>
<p></p>
<p><span>वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू हमदम </span><br/><span>हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते</span></p>
<p></p>
<p>सादर </p>
<p> </p>
<p>आदरणीय बृजेश जी,</p>
<p>खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.</p>
<p>'रगें को' व्याकरणिक रूप से गलत है 'रगों को' कर लें.</p>
<p>और अगर अच्छा लगे तो दूसरे शेर को कुछ यूं कर सकते है :</p>
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<p><span>वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू हमदम </span><br/><span>हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते</span></p>
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<p>सादर </p>
<p> </p> सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुब…tag:openbooksonline.com,2017-08-29:5170231:Comment:8767982017-08-29T08:59:24.154Zराज़ नवादवीhttp://openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p>सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुबारकबाद. ख़ासकर ये दो अशआर बड़े सुन्दर हुए हैं: </p>
<p></p>
<p><span>अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की</span><br/><span>हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते</span><br/><br/><span>शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम</span><br/><span>न होती आँख में शबनम अगर कहकर गये होते</span></p>
<p>सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुबारकबाद. ख़ासकर ये दो अशआर बड़े सुन्दर हुए हैं: </p>
<p></p>
<p><span>अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की</span><br/><span>हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते</span><br/><br/><span>शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम</span><br/><span>न होती आँख में शबनम अगर कहकर गये होते</span></p> बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय शर्…tag:openbooksonline.com,2017-08-29:5170231:Comment:8768412017-08-29T04:41:30.622Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय शर्मा जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय शर्मा जी.. आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल tag:openbooksonline.com,2017-08-28:5170231:Comment:8765962017-08-28T18:07:44.405Zajay sharmahttp://openbooksonline.com/profile/ajaysharma234
<p><span>आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल </span></p>
<p><span>आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल </span></p>