Comments - ग़ज़ल नूर की -जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है, - Open Books Online2024-03-29T06:41:44Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A881701&xn_auth=noआदरणीय सादर प्रणाम
बता नहीं स…tag:openbooksonline.com,2021-02-17:5170231:Comment:10520932021-02-17T15:48:30.147ZAazi Tamaamhttp://openbooksonline.com/profile/AaziTamaa
<p>आदरणीय सादर प्रणाम</p>
<p>बता नहीं सकता इस ग़ज़ल को पड़ने के बाद कैसा लगा</p>
<p>इक इक शैर नायाब लगा नये जैसा लगा.......... </p>
<p></p>
<p>मेरी सबसे पसंदिदा लाईन जो हर जगह याद आ ही जाती है </p>
<p>" रो लेते हैं रो लेने से मन हल्का हो जाता है "</p>
<p></p>
<p>धन्यवाद ऐसी नायाब ग़ज़ल से रू ब रु कराने के लिये........ </p>
<p>आदरणीय सादर प्रणाम</p>
<p>बता नहीं सकता इस ग़ज़ल को पड़ने के बाद कैसा लगा</p>
<p>इक इक शैर नायाब लगा नये जैसा लगा.......... </p>
<p></p>
<p>मेरी सबसे पसंदिदा लाईन जो हर जगह याद आ ही जाती है </p>
<p>" रो लेते हैं रो लेने से मन हल्का हो जाता है "</p>
<p></p>
<p>धन्यवाद ऐसी नायाब ग़ज़ल से रू ब रु कराने के लिये........ </p> शुक्रिया आ. अजय जी tag:openbooksonline.com,2018-03-08:5170231:Comment:9180382018-03-08T15:28:02.020ZNilesh Shevgaonkarhttp://openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>शुक्रिया आ. अजय जी </p>
<p>शुक्रिया आ. अजय जी </p> आदरणीय निलेश जी.
उम्दा ग़ज़ल हु…tag:openbooksonline.com,2017-10-15:5170231:Comment:8896382017-10-15T04:46:41.663ZAjay Tiwarihttp://openbooksonline.com/profile/AjayTiwari
<p>आदरणीय निलेश जी.</p>
<p>उम्दा ग़ज़ल हुई है. शुभकामनाएं.</p>
<p>सादर </p>
<p>आदरणीय निलेश जी.</p>
<p>उम्दा ग़ज़ल हुई है. शुभकामनाएं.</p>
<p>सादर </p> धन्यवाद आ. सौरभ सर,निलेश (कृष…tag:openbooksonline.com,2017-10-08:5170231:Comment:8877402017-10-08T18:27:37.677ZNilesh Shevgaonkarhttp://openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>धन्यवाद आ. सौरभ सर,<br/>निलेश (कृष्ण ) नाम है... अगली बार शिशुपाल के 100 गुनाह माफ़ कर दूँगा...<br/>सादर </p>
<p>धन्यवाद आ. सौरभ सर,<br/>निलेश (कृष्ण ) नाम है... अगली बार शिशुपाल के 100 गुनाह माफ़ कर दूँगा...<br/>सादर </p> सही है। वो टिप्पणी निहायत अनक…tag:openbooksonline.com,2017-10-08:5170231:Comment:8879092017-10-08T18:13:13.255ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
सही है। वो टिप्पणी निहायत अनकॉल्ड फॉर है। किंतु, आप यहाँ रचनाकार हैं, संयम की अपेक्षा आपसे तनिक अधिक थी।<br />
शुभेच्छाएँ
सही है। वो टिप्पणी निहायत अनकॉल्ड फॉर है। किंतु, आप यहाँ रचनाकार हैं, संयम की अपेक्षा आपसे तनिक अधिक थी।<br />
शुभेच्छाएँ आ. सौरभ सर,आपकी टिप्पणी की हम…tag:openbooksonline.com,2017-10-08:5170231:Comment:8877152017-10-08T10:41:30.480ZNilesh Shevgaonkarhttp://openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>आ. सौरभ सर,<br></br>आपकी टिप्पणी की हमेशा ही प्रतीक्षा रहती है ...आज बड़े दिनों बाद आपकीदाद पाकर संतुष्टि हुई...<br></br>आपके दूसरे कमेंट से भी पूर्णत: सहमत हूँ कि रचना लेखक और पाठक को करीब लाती है ,,,उसी सम्बन्ध से रचनाकर्म समृद्ध भी होता है ..... आप सभी टिप्पणियों में वो सबसे पहली टिप्पणी देखें जिसके कारण मुझे बाद की सभी बातेंविवशता में लिखनी पडी...<br></br>कोई कैसे किसी के भावों को <strong>फैशनेबल सूफिज्म का हवाहवाई दर्शन </strong>कह के व्यंग्य कर सकता है... करेगा तो उचित जवाब भी पायेगा…</p>
<p>आ. सौरभ सर,<br/>आपकी टिप्पणी की हमेशा ही प्रतीक्षा रहती है ...आज बड़े दिनों बाद आपकीदाद पाकर संतुष्टि हुई...<br/>आपके दूसरे कमेंट से भी पूर्णत: सहमत हूँ कि रचना लेखक और पाठक को करीब लाती है ,,,उसी सम्बन्ध से रचनाकर्म समृद्ध भी होता है ..... आप सभी टिप्पणियों में वो सबसे पहली टिप्पणी देखें जिसके कारण मुझे बाद की सभी बातेंविवशता में लिखनी पडी...<br/>कोई कैसे किसी के भावों को <strong>फैशनेबल सूफिज्म का हवाहवाई दर्शन </strong>कह के व्यंग्य कर सकता है... करेगा तो उचित जवाब भी पायेगा ...<br/>सादर </p> इस प्रस्तुति पर आयी हुई सारी…tag:openbooksonline.com,2017-10-07:5170231:Comment:8874502017-10-07T15:16:52.229ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
<p>इस प्रस्तुति पर आयी हुई सारी टिप्पणियाँ देख गया. मन व्यथित तो है लेकिन संयत भी है. आदरणीय नीरज जी और आदरणीय नीलेश जी दोनों एक-सी बातें दो ढंग में कर रहे हैं. ओबीओ के ढंग में ये बातें करें तो दोनों को एक-दूसरे की महती आवश्यकता है. शाब्दिक प्रस्तोता को पाठक-श्रोता चाहिए और श्रोता-पाठक को प्रस्तोता. दोनों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है. और पाठक-श्रोता कई बार वाहवाही नहीं करता. तो प्रस्तोता भी अपनी शैली को भिन्न-भिन्न आयाम देता रहता है. साहित्य को दोनों चाहिए. </p>
<p>शुभेच्छाएँ </p>
<p></p>
<p>इस प्रस्तुति पर आयी हुई सारी टिप्पणियाँ देख गया. मन व्यथित तो है लेकिन संयत भी है. आदरणीय नीरज जी और आदरणीय नीलेश जी दोनों एक-सी बातें दो ढंग में कर रहे हैं. ओबीओ के ढंग में ये बातें करें तो दोनों को एक-दूसरे की महती आवश्यकता है. शाब्दिक प्रस्तोता को पाठक-श्रोता चाहिए और श्रोता-पाठक को प्रस्तोता. दोनों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है. और पाठक-श्रोता कई बार वाहवाही नहीं करता. तो प्रस्तोता भी अपनी शैली को भिन्न-भिन्न आयाम देता रहता है. साहित्य को दोनों चाहिए. </p>
<p>शुभेच्छाएँ </p>
<p></p> आज अरसे बाद आ पाया हूँ .. और…tag:openbooksonline.com,2017-10-07:5170231:Comment:8875652017-10-07T15:08:24.800ZSaurabh Pandeyhttp://openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
<p>आज अरसे बाद आ पाया हूँ .. और आपकी प्रस्तुति देख रहा हूँ ..</p>
<p>आप बहुत बदमाश हैं .. काहे ऐसा लिखते हैं जी ?..</p>
<p>जलन होती है.. </p>
<p></p>
<p>सलामत रहें.. सलामत रहें, आदरणीय नीलेश नूर जी </p>
<p>शुभ-शुभ</p>
<p></p>
<p>आज अरसे बाद आ पाया हूँ .. और आपकी प्रस्तुति देख रहा हूँ ..</p>
<p>आप बहुत बदमाश हैं .. काहे ऐसा लिखते हैं जी ?..</p>
<p>जलन होती है.. </p>
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<p>सलामत रहें.. सलामत रहें, आदरणीय नीलेश नूर जी </p>
<p>शुभ-शुभ</p>
<p></p> शुक्रिया आ. डॉ साहब tag:openbooksonline.com,2017-09-26:5170231:Comment:8843752017-09-26T10:03:16.250ZNilesh Shevgaonkarhttp://openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>शुक्रिया आ. डॉ साहब </p>
<p>शुक्रिया आ. डॉ साहब </p> शुक्रिया आ. नन्द किशोर जी tag:openbooksonline.com,2017-09-26:5170231:Comment:8842902017-09-26T10:03:03.846ZNilesh Shevgaonkarhttp://openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>शुक्रिया आ. नन्द किशोर जी </p>
<p>शुक्रिया आ. नन्द किशोर जी </p>