Comments - अँधेरे का डर (लघुकथा ) - Open Books Online2024-03-29T13:08:32Zhttp://openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A932438&xn_auth=no
अँधेरे का डर
जब भी सुरे…tag:openbooksonline.com,2018-06-06:5170231:Comment:9326052018-06-06T11:29:21.013Zमोहन बेगोवालhttp://openbooksonline.com/profile/DrMohanlal
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<p>अँधेरे का डर</p>
<p>जब भी सुरेन्द्र बात करता हौसला उसकी बातों से अकसर झलकता, काम करवाने के लिए जब भी कोई उसके दफ्तर में आता उसी का हो कर रह जाता |<br></br> मुश्किल पलों में भी वह मजाक को साथ नहीं छोड़ने देता, और जिन्दगी का हिस्सा बना लिया |<br></br> जब सुरेन्द्र सफर में होता तो ऐसा कभी न होता कि सफर करते हुए कोई आकह्त महसूस होती हो उसे, वह तो साथ बैठे से ऐसी बात शुरू करता कि सफर खत्म होने तक वह शख्स उसी का हो जाता |<br></br> मगर आज ऐसा नहीं था, जिस शहर में वो जा रहा था, कई रोज़ से वहाँ दहशत…</p>
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<p>अँधेरे का डर</p>
<p>जब भी सुरेन्द्र बात करता हौसला उसकी बातों से अकसर झलकता, काम करवाने के लिए जब भी कोई उसके दफ्तर में आता उसी का हो कर रह जाता |<br/> मुश्किल पलों में भी वह मजाक को साथ नहीं छोड़ने देता, और जिन्दगी का हिस्सा बना लिया |<br/> जब सुरेन्द्र सफर में होता तो ऐसा कभी न होता कि सफर करते हुए कोई आकह्त महसूस होती हो उसे, वह तो साथ बैठे से ऐसी बात शुरू करता कि सफर खत्म होने तक वह शख्स उसी का हो जाता |<br/> मगर आज ऐसा नहीं था, जिस शहर में वो जा रहा था, कई रोज़ से वहाँ दहशत का माहौल था, उसे लगा कि आज ये बस किसी अनजान सफर को जा रही थी, जिस पर वह सवार था |<br/> जिस तरह के दंगो के बारे उस ने मीडिया से देखा और सुना था, इस के बारे वह पास बैठे शख्स से बात करने से कन्नी कतरा रहा था| <br/> मगर उसको ये बात तसल्ली देती कि आदमी जब अकेला हो तो अच्छा होता है, भीड़ का हिस्सा हो तो भीड़ उसे बुरा बना देती है |<br/> “ये क्या बात हुई, अच्छा आदमी कैसे भीड़ में जा कर बुरा हो जाता है”, सुरेन्द्र फिर खुद से ही सवाल करता |<br/> फिर हौसले के साथ खुद को कहा, "इस से बात तो हो सकती, जैसा मैं सोच रहा हूँ, अगर ये अकेला है तो अच्छा ही होगा" | तभी अचानक ही उस ने सुरेन्द्र के विचारों की लड़ी को तोड़ते हुए कहा "लग रहा कि आप पहली बार इस तरफ आए हो"|<br/> “हाँ” |<br/> “क्या आप पहले यहाँ नहीं आना चाहते थे या आ नहीं सके, उसने फिर पूछा |<br/> “हाँ, कह कर सुरेन्द्र चुप हो गया, मगर बातों का सिलसिला चल पढ़ा, जैसे बातें का दौर चल रहा सुरेन्द्र की सोच में डर कुछ कुछ कम होना शुरू हो गया |<br/> बस रुकी दोनों नीचे उतर कर चलने लगे, कोई लेने आ रहा है , रफीक ने पूछा| <br/> सुरेन्द्र ने कहा, "कोई नहीं , अँधेरा होने लगा" |<br/> "कहाँ जाना है",<br/> सुरेन्द्र ने मौहला का नाम लिया, चलो में छोड़ देता हूँ अँधेरा हो गया है| <br/> दोनों थ्री -वीलर में बैठ गए और थ्री – वीलर चल पढ़ा, सुरेन्द्र को लगा रौशनी अँधेरे के डर चीर आगे बढ़ रही है|</p>
<p> </p> आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, इस प्…tag:openbooksonline.com,2018-06-06:5170231:Comment:9327642018-06-06T04:41:03.009ZMahendra Kumarhttp://openbooksonline.com/profile/Mahendra
<p>आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आपकी लघुकथा के सन्दर्भ में कुछ चीजें हैं जो मुझे स्पष्ट नहीं हो सकीं. </p>
<p>1. //<span>मगर आज ऐसा नहीं था, बस उस के लिए अनजान सफर में जा रही थी, जिस पर वह सवार था |// आज ऐसा क्या नहीं था?</span></p>
<p>2. //<span>जो कुछ उसने सुना था, इस लिए वह पास बैठे शख्स से बात करने से कन्नी कतरा रहा था|// उसने क्या सुना था?</span></p>
<p>3. <span>सुरेन्द्र को अँधेरे से क्यों डर लगता था? यह भी स्पष्ट नहीं है.</span></p>
<p><span>4.…</span></p>
<p>आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आपकी लघुकथा के सन्दर्भ में कुछ चीजें हैं जो मुझे स्पष्ट नहीं हो सकीं. </p>
<p>1. //<span>मगर आज ऐसा नहीं था, बस उस के लिए अनजान सफर में जा रही थी, जिस पर वह सवार था |// आज ऐसा क्या नहीं था?</span></p>
<p>2. //<span>जो कुछ उसने सुना था, इस लिए वह पास बैठे शख्स से बात करने से कन्नी कतरा रहा था|// उसने क्या सुना था?</span></p>
<p>3. <span>सुरेन्द्र को अँधेरे से क्यों डर लगता था? यह भी स्पष्ट नहीं है.</span></p>
<p><span>4. बिंदु संख्या 3 की वजह से शीर्षक भी स्पष्ट नहीं हो सका. </span></p>
<p>सादर.</p>