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"शादी के दस साल बाद भी ऐसी हरकत ?"
"……………"
"क्या ये सच है क़ि तेरे पेट में मालिक का बच्चा है ?"
"हाँ, ये बात बिलकुल सच है." 
"अरी छिनाल, लोगों को पता चलेगा तो वो क्या कहेंगे ?"

"और तो कुछ पता नहीं, लेकिन अब तुम्हे
कोई नामर्द नहीं कहेगा"
.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 17, 2017 at 11:19pm

कितना कटु है यह विषैला सत्य  बहुत कुछ कह गयी यह कथा भी आपकी आदरणीय सर | हार्दिक बधाई |

Comment by Kiran Arya on December 11, 2013 at 4:18pm

एक ऐसा सच जो इस समाज का ही हिस्सा है ....बहुत कुछ कह जाती है आपकी ये लघु कथा सर ....निशब्द है मन के भाव इस कहानी को पढ़कर .......


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 18, 2013 at 1:10pm

डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी - आपकी उत्साहवर्धक टिप्प्णी हेतु ह्रदय तल से आभार व्यक्त करता हूँ.
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, सादर आभार।
सादर धन्यवाद आ० लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी.
भाई शिज्जू शकूर जी, रचना पसंद करने के लिए दिल से धन्यवाद।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, ह्रदय से आभार।
भाई अरुण शर्मा अनंत जी - आपको रचना अच्छी लगी,  यह जानकार ख़ुशी हुई. दिल से धन्यवाद आपका।
आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, बहुत बहुत आभार।
सादर धन्यवाद भाई सुशील जोशी जी.  
दिल से धन्यवाद भाई जितेन्द्र जीत जी.
सादर आभार आ० अरुण कुमार निगम भाई जी.
रचना को  और पसंद करने के लिए आपका आभारी हूँ डॉ प्राची सिंह जी
रचना के मर्म तक पहुँचने हेतु आपका दिल से आभार आ० राजेश कुमारी जी. वैसे कम शब्दों में अपनी बात कहना लघुकथा की खासियत ही नहीं बल्कि एक शर्त भी है.
दिल से शुक्रिया आ० मीना पाठक जी.
सादर धन्यवाद आ० विजय मिश्र जी.
आभार भाई पीयूष द्विवेदी भारत जी.
डॉ आशुतोष मिश्रा जी, ह्रदय से आभार।
प्रिय गीतिका जी, लघुकथा जो डंक न मारे, जो एकदम से चिकोटी न काटे या आँखों को चौंधिया न दे - समझ लें उसमे किसी तत्व की कमी रह गई. जान कर बहुत अच्छा लगा कि इस लघुकथा ने आपको कुछ पलों के लिए स्तब्ध किया। दिल से आभार।
भाई शुभ्रांशु जी - दिल से आभार।
बहुत बहुत शुक्रिया भाई बृजेश नीरज जी.
आपकी सकारात्मक टिप्प्णी से बेहद उत्साह मिला आदरणीय सौरभ भाई जी, दिल से आपका आभार व्यक्त करता हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 14, 2013 at 12:21am

आदरणीय योगराजभाईसाहब, आपकी प्रस्तुत लघुकथा कई प्रश्न लिए सामने आती है. कथा से कथ्य का लुप्त दिखना किन्तु उसको निहितार्थ से संभव कर दिखाना आपकी कथाओं की अद्भुत विशेषता रही है. संवाद पक्ष इतना सान्द्र होता है कि सारा कुछ मय वातावरण के बाहर निकल आता है.
यह तो हुई शिल्प की बात.

लघुकथा जिस तथ्य को उजागर करती है वह समाज की असहिष्णुता ही नहीं अव्यावहरिकता को भी स्वर देता हुआ है. नामर्दग़ी के नाम पर मिलता हुआ कटाक्ष सतही और उथला होने के बावज़ूद जन-मानस के अवचेत में कितने गहरे पैठ बना गया है कि सारा बुद्धि-विवेक, सारी वैचारिकता ही डूबी जाती हैं.


आपकी इस प्रस्तुति को मेरी सादर बधाइयाँ

Comment by बृजेश नीरज on November 12, 2013 at 11:27pm

समाज का विषैला रूप ही है जो आपकी कथा में मुखर हुआ है! समाज के साफ़ सुथरे आवरण के नीचे कितनी गन्दगी फैली है!

इस सुन्दर अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!

सादर!

Comment by Shubhranshu Pandey on November 12, 2013 at 10:20pm

आदरणीय योगराज जी, 

समाज के दोमुहेपन पर एक सुन्दर कथा....किसी घटना को अपने फ़ायदे के लिये कैसे इस्तमाल कर सकता है. 

सादर.

Comment by वेदिका on November 12, 2013 at 5:31pm

संदेश ऐसा कि स्मपूर्ण शरीर मे विष फैल गया|  आदरणीय योगराज जी! आपकी हर लघुकथा यही प्रभाव हर बार देती है कि पढ़ने के बाद कुछ क्षणों को स्तब्ध कर देती है| चकित हूँ आपकी सलीकेदार लेखन शैली पर|

बधाई आदरणीय !!    

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 12, 2013 at 4:21pm

आदरणीय योगराज सर ...बिलकुल हट कर है ये लघु कथा ..बेहद चुनिन्दा शब्दों से बयां की गया एक बेहद कड़वा सच ..इस रचना पर हार्दिक बधाई के साथ 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 12, 2013 at 1:07pm

अद्भुत आदरणीय योगराज जी ! सच में गागर में सागर भर दिया है आपने ! कोटि कोटि बधाई स्वीकारें...!

Comment by विजय मिश्र on November 11, 2013 at 5:57pm
योगराज भाई , क्या ही लज्जतदार फजीहत परोसा है ! बहुत खूब . कितने कम शब्दों में कितनी उत्कट बात कह डाली . बधाई .

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