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गीत लिखो कोई ऐसा --(गीत)-- मिथिलेश वामनकर

गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।

सत्य नहीं क्या कविता में,  

निर्धनता का व्यापार हुआ?

 

जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।

आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।

जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।

हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?

इन बातों से श्रमजीवी का

बोलो कब उद्धार हुआ?

 

अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।

स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से नाराज कहा।

जीवन भर उन धनवानों से पुरस्कार, सम्मान लिए ।

निर्धन से उपकार जताकर, अपने तम्बू तान लिए ।

पर-पीड़ा से नाम कमाया,

ये कैसा उपकार हुआ ?

 

बाहर घटित हो रहा जो भी, वो कवि के भी भीतर हो।

ना हो कल्पित जाल शब्द के, सिर्फ समय का उत्तर हो।

रूपक, बिम्ब, प्रतीकों में बस उलझाया है कविता को।

जन-जन प्रिय थी लेकिन छोड़ा क्यों छंदों की सरिता को?

इतने क्लिष्ट चयन से केवल

उलझन का विस्तार हुआ।

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 12:00pm

आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, आपको यह गीत पसंद आया, मेरा प्रयास सार्थक हो गया. गीत के कथ्य को विस्तार देती आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 25, 2017 at 10:50am
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से नाराज कहा।
बात गहरी और हमारे सन्दर्भ में सही है। निर्धनता एक व्यापार ही है। बचपन से देख सुन रहे हैं , गरीब की मदद कितना बड़ा प्रयोजन है। जबकि वास्तविकता यह है कि गरीबी किसी के लिए संकटकालीन , अल्पकालीन एक आपात स्थिति हो सकती है , पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली व्याधि नहीं हो सकती है। पर यदि है तो निश्चित बहुत बड़ा योजनाबद्ध प्रयास है जो गरीबी को जीवंत बनाये हुए है। यह मदद नहीं एक प्रकार की बाध्यता है कि चलते रहना है तो हमारी बैसाखी लेकर चलो , अपने पैरों पर चलना तो क्या हम तुम्हें खड़ा नहीं होने देंगें। देश में एक विशाल वर्ग ऐसा बनाये रखना जो आपके सस्ते आटे-दाल की बात जोहते जोहते जिंदगी गुजार दे और आपको व्यवस्था के शीर्ष पर बैठाता रहे। गज़ब का कौशल है , कभी इस सामर्थ्य , कौशल का किसी अच्छे काम में इस्तेमाल तो करो फिर देखो इससे कई गुना अच्छा कर ले जाओगे। पर वही तो नहीं कर पाते हो।
बहुत बहुत बधाई इस विलक्षण गंभीर विषय को उठाने और उस पर लिखने के लिए , प्रिय मिथिलेश वामनकर जी , सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 1:08am

आदरणीया प्रतिभा जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 1:07am

आदरणीय आशुतोष जी, आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा पाकर खुश हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 1:07am

आदरणीया नीलम जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 1:06am

आदरणीय जयनित जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by pratibha pande on January 24, 2017 at 12:44pm

अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।

स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से नाराज कहा।

जीवन भर उन धनवानों से पुरस्कार, सम्मान लिए ।

निर्धन से उपकार जताकर, अपने तम्बू तान लिए ।

पर-पीड़ा से नाम कमाया,...

ये कैसा उपकार हुआ ?

.बहुत अंदर तक बेध रही हैं ये पंक्तियाँ क्यों कि यह सच्चाई है आज की   बधाई आपको आदरणीय मिथिलेश जी 

 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 20, 2017 at 1:35pm

आदरणीय मिथिलेश जी आपकी यूं तो हर रचना मुझे बेहद पसंद आती है लेकिन वरीयता के क्रम में इस रचना का स्थान बहुत ऊपर है /सरल सहज तरीके से जबदसत सन्देश देती और आत्म चिंतन के लिए बिबश करती इस शानदार गीत पर कोटिश: बधाई सादर 

Comment by Neelam Upadhyaya on January 20, 2017 at 10:30am

आदरणीय मिथिलेश जी, सामाजिक यथार्थ का चित्रण करती बहुत ही सुन्दर रचना की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें.

Comment by जयनित कुमार मेहता on January 20, 2017 at 5:37am
आदरणीय मिथिलेश जी, ग़ज़ल के बाद अब गीत विधा में भी हम आपकी प्रतिभा का लोहा मानने को मजबूर हो गए हैं। :-)
एक से बढ़कर एक प्रासंगिक और प्रवाहपूर्ण गीतों से आप मंच की शोभा बढ़ा रहे हैं। बहुत बहुत बधाइयां आपको।

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