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ग़ज़ल नूर की-- तेरी दुनिया में हम बेकार आये.

.
समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,
तेरी दुनिया में हम बेकार आये.
.
बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,
कहानी थी.... कई क़िरदार आये. 
.
क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,  
सफ़र में मरहले दुश्वार आये.
.
शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,
वहाँ से अब अगर इनकार आये.
.
उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,   
मगर वापस फ़क़त दो चार आये.
.
समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,
मेरे हाथों में गर पतवार आये.
.
अगरचे लोग वो सस्ते नहीं थे,
जो बिकने को सर-ए-बाज़ार आये.
.
तेरी यादों से छुट्टी कब मिलेगी,
कभी तो ज़ह’न को इतवार आये. 
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 9:39pm
अमजद इस्लाम साहिब सही फरमाते हैं,'हमें''हमारी'बहुवचन है न ?
अगर इसे यूँ कहेंगे तो गलत होगा:-
'मुझे तो मेरी अनाएँ तबाह कर देंगी'
थोड़ा ग़ौर फरमाइये ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 28, 2017 at 9:27pm

आ. समर सर... अमज़द इस्लाम साहब फ़रमाते हैं ..
.

हमें हमारी अनाएँ तबाह कर देंगी

मुकालमे का अगर सिलसिला नहीं करते... 
.
सादर 

Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 9:15pm
जनाब अनुराग वशिष्ट जी आदाब,इनायत है आपकी जो मुझे आलिम कह रहे हैं,मैं तो ख़ुद को तालिब इल्म ही समझता हूँ,टंकण त्रुटि हो जाती है,क्षमा मांग कर शर्मिन्दा न करें भाई ।
Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 6:19pm
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,जनाब अनुराग साहिब का कहना बिल्कुल दुरुस्त है "अना" यानी ज़मीर,वाहिद मुताकल्लिम है, मिसरा यूँ किया जा सकता है :-
"समन्दर की अना को ग़र्क़ कर दूँ"
देखियेगा ।
Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 6:13pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,मुझे जो थोड़ी बहुत जानकारी है उसे गाहे ब गाहे मंच से साझा कर लेता हूँ,यही तो हमारे मंच की सबसे बड़ी ख़ूबी है, आपकी मुहब्बतों के लिये शुक्रगुज़ार हूँ,ओबीओ ज़िंदाबाद ।
Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 5:58pm
भाई निलेश जी,मैं कबूतर बाज़ हरगिज़ नहीं हूँ,क्योंकि 'कबूतर बाज़ी'एक तरह का जुवा होता है और अल्लाह का शुक्र है मैं इससे बहुत दूर हूँ ।
जब मैंने शाइरी की इब्तिदा की थी तब मेरे वालिद-ए-मरहूम ने हिदायत की थी कि बेटा,शाइरी बहुत मुश्किल फ़न है, सिर्फ़ अरूज़ और ग्रामर पढ़ लेने से काम नहीं चलता इसके साथ साथ बहुत से उलूम-ओ-फ़ुनून की जानकारी भी हासिल करना पड़ती है,उनकी इस हिदायत को मैंने गिरह में बांध लिया था,ये उसी का नतीजा है ।
आपको'कबूतर बाज़ी के हुनर'की जगह "कबूतरों के बारे में मालूमात"लिखना था,तो मुझे बहुत ख़ुशी होती,ख़ैर ये आपने अंजाने में लिख दिया,कोई बात नहीं ।
Comment by Sushil Sarna on March 28, 2017 at 3:09pm

इस सुंदर ग़ज़ल के लिए आदरणीय निलेश जो हार्दिक बधाई और समर साहिब की उसपर समीक्षा गज़ब।

वाह आदरणीय समर कबीर साहिब आपकी समीक्षा , आपका शाब्दिक ज्ञान , व्याकरण , आपके इस असीमित ज्ञान दान से कम से कम मैं तो बहुत लाभान्वित होता हूँ। अब ग़ज़ल की समीक्षा में कासिद शब्द के चक्कर में कबूतरों की किस्मों का भी ज्ञान हो गया। नमन नमन सर आपको।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 28, 2017 at 2:50pm

शुक्रिया आ. समर सर ,,,
मेरी post के बहाने आज मंच आपके कबूतरबाज़ी वाले हुनर से भी परिचित हो गया :))))
मैंने दरअसल फ़राज़ साहब की नज़्म सिर्फ चर्चा को आगे बढाने के लिये ही डाली थी ...
वो शेर वैसे भी मैं ख़ारिज कर रहा हूँ और उसकी जगह कुछ और विचार चल रहा है.
आप से विस्तृत मार्गदर्शन मिला इसलिए अभिभूत हूँ ..
सादर 

Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 2:32pm
भाई निलेश जी,आपने सही कहा,'नामाबर'और 'क़ासिद'शब्द का अर्थ एक ही है, ये अलग बात कि ये अलग अलग भाषा के शब्द हैं ।
'शब्द कोष में 'नामा बर'का अर्थ लिखा है:-'चिट्ठी रसां','क़ासिद'।
इसी तरह "क़ासिद"शब्द का अर्थ लिखा है:-'नामा बर','चिट्ठी रसां','पयाम बर','एलची','सफ़ीर'।
अब सवाल ये पैदा होता है कि ,'नामा बर कबूतर'को 'क़ासिद कबूतर'भी कह सकते हैं,क्योंकि दोनों के अर्थ तो एक ही हैं,जब अर्थ एक ही हैं तो उसे 'पयाम बर कबूतर',एलची कबूतर','चिट्ठी रसां कबूतर'या हिन्दी भाषा में 'पत्र वाहक कबूतर'क्यों नहीं कह सकते ?,ये इसलिये कि कबूतरों की कई क़िसमें होती हैं,जिनके अलग अलग नाम हैं,जैसे :-
'ताकी',ये कबूतर ऐसा होता है जिसकी एक आँख काली और एक आँख सफेद होती है ।
'कलाक',इस कबूतर की दोनों आँखें काली होती हैं ।
'जरछा',इसकी दोनों आँखें नारंजी होती हैं ।
'लौटन'ये कबूतर लौटता है ।
'गर्म ',ये कबूतर उड़ते वक़्त आसमान में गुलाटी लगाता है ।
'लक़्क़ा',इस कबूतर की दुम सर तक उठी होती है,और ये उड़ने में कमज़ोर होता है,और महज़ ख़ूबसूरती की वजह से पाला जाता है ।
'नामा बर'ये कबूतर पैग़ाम रसानी के लिये होता है,और इसे 'नामा बर'ही कहना मुनासिब है, क्योंकि ये इसका नाम है,जिस तरह किसी शख़्स का नाम 'सहर'हो और हम उसे 'सुब्ह'कहें,या 'सवेरा'कहें और उसकी ये वजह बताएं कि इसका अर्थ तो एक ही है, तो क्या ये मुनासिब होगा ?,ठीक इसी तरह जब इस कबूतर का नाम ही 'नामा बर है तो उसे उसके नाम से ही लिखना होगा न ? ।
अब आइये 'अहमद फ़राज़'साहिब की नज़्म की तरफ़, जहाँ तक मेरा ख़याल है "क़ासिद कबूतर"की मिसाल आपने नेट पर सर्च की होगी तो आपको सिर्फ़ ये नज़्म मिली,वरना आप कुछ और भी मिसालें पेश करते ।
'फ़राज़'की नज़्म के बारे में कुछ कहूँ उससे पहले ये जान लेना जरूरी है कि वो पाकिस्तानी हुकूमत के बाग़ियों में शुमार किये जाते थे और इसी सबब से जिला वतनी की ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर थे,उनकी बेश्तर नज़्में इसकी मिसाल में पेश की जा सकती हैं,मज़कूर नज़्म भी उसी सिलसिले की एक कड़ी है,यहाँ ये मद्दे नज़र रहे कि ग़ज़ल और नज़्म में बड़ा फ़र्क़ होता है(जैसा कि आप जानते ही हैं)ये नज़्म भी उन्होंने हुकूमत के ख़िलाफ़ एहतिजाज में लिखी और यहाँ "क़ासिद कबूतर"शब्द को इस्तिआरे के तौर पर इस्तिमाल किया है,नज़्म में हम जो बातें आसानी से कह सकते हैं वही बातें ग़ज़ल में कहना बड़ा मुश्किल होता है,ये भी मद्दे नज़र रहे कि ये आज़ाद नज़्म है, पाबन्द नहीं,मिसाल के तौर पर अगर कोई नॉवेल निगार अपनी नॉवेल का नाम "क़ासिद कबूतर"रखे तो उस पर ऐतिराज़ नहीं किया जा सकता,मगर हम ग़ज़ल की बात करें तो वहाँ बड़ी बारीक़ बातों का भी ध्यान रखना पड़ेगा । बात बहुत तवील हो गई है,मगर आप मेरे बिन्दुओं पर ज़रा भी ग़ौर कर लेंगे तो मेरा लिखना सार्थक होगा,और इतना मैंने आभार और धन्यवाद पाने के लिये नहीं किया ।
इस पस-ए-मंज़र में तरमीम शुदा शैर पर आप ख़ुद ही ग़ौर कर लें तो बहतर होगा । बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 27, 2017 at 9:00pm

तरमीम का शेर ,,
.
उड़े तो थे कई क़ासिद कबूतर,   
मेरी छत पर फ़क़त दो चार आये. 

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