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बहती नदी से पूछा मैंने
बहती रहती हो थमती नहीं

देख मुझको वो मुस्कायी
बोली कुछ पल कुछ भी नहीं ।

देख हंसी उसकी फिर पूछा मैंने
बोलो न क्यों तुम रूकती नहीं

देख मेरी उत्सुकता वह बोली
अरे मेरी भोली सी बहना

रुक गयी तो कैसे चलेगा
खेतों का गागर कैसे भरेगा

सागर से फिर कौन मिलेगा
हरियाली से कौन बतियाईएगा

इतराती नहीं नारी हूँ मैं भी
चंचल हिरणी , मनभावन हूँ मैं भी

टकरा जाती हूँ चट्टानों से
बादलों से करती हूँ मैं बातें

सूरज की तपिश को पी लेती
चाँद को निगल जाती हूँ मैं

देख मुझको पुकारता है सागर
प्यार से अपनी लेहरो से करता है बातें

तेज़ बहतीं हूँ कहीं निर्मल धारा हूँ
कहीं पर्वतों से दूध बरसाती

कहीं झरनों की धार बन जाती
हर रूप मेरा तुमको क्यों भाता

बोल बहना क्यों करती हो बातें
देख उसको मैं फिर बोली

बहती हुई जीवंत लगती हो
तुमसे जब जब करती हूँ बातें

लगता है तुम बहुत कुछ सिखाती हो
जीवन की ऊँची नीची डगर को

तुम बहुत अच्छे से समझती हो
अपनी गति से पार करती हो

जीवन हो तुम , सखी मानती हूँ
तुम नदी सही पर मेरी माँ हो ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 22, 2017 at 8:21pm
धन्यवाद आदरणीय नरेंद्र जी
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 22, 2017 at 8:20pm
आदाब आदरणीय समर साहब,सादर धन्ययवाद
Comment by narendrasinh chauhan on May 22, 2017 at 5:20pm

सुन्दर रचना 

Comment by Samar kabeer on May 22, 2017 at 2:44pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,बहुत सुंदर कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 22, 2017 at 1:16pm
धन्यवाद आदरणीय आरिफ़ साहब।
Comment by Mohammed Arif on May 22, 2017 at 1:10pm
आदरणीया कल्पना भट्ट जी आदाब, नदी को आधार और जीवनदायिनी बनाकर सहज , सरल और सरस कविता की बानगी पेश की आपने । नये बिम्ब और प्रतीकों की कमी महसूस हो रही है । बधाई स्वीकार करें ।

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