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सागर ....

नहीं नहीं
सागर
मुझे तुम्हारे कह्र से
डर नहीं लगता
तुम्हारी विध्वंसक
लहरों से भी
डर नहीं लगता
तुम्हारे रौद्र रूप से भी
डर नहीं लगता
मगर
ऐ सागर
अगर तुम
वहशियों से नोचे गए
मासूमों के
क्रंदन सुनोगे
तो डर जाओगे
किसी खामोश आँख में
ठहरा समंदर
देखोगे
तो डर जाओगे
खिलने से पहले
कुचली कलियों के
शव देखोगे
तो डर जाओगे
सदियों से तुमने
अपने गर्भ में
न जाने कितने
दर्द के समंदर छुपाये होंगे
मगर वहशियों की वासना का
शिकार बनी मासूम की देह
माँ की गोद में देखोगे
तो डर जाओगे
इसलिए ऐ सागर
तुम्हारा अट्हास
तुम्हारा विध्वंसक तूफ़ान
तुम्हारी लहरों का रौद्र रूप
दरिंदों के नुकीले पंजों से आहत
मासूमों के क्रंदन आगे
कुछ नहीं
हो सके तो ऐ सागर
अपनी ऊंची लहरों से
खुदा को पैगाम दो
कि ऐ मालिक
या तो इंसान को इंसान बना
ये दरिंदों को
ज़मीं से उठा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 19, 2019 at 7:26pm

आदरणीय Samar kabeer जी, सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।

Comment by Samar kabeer on December 13, 2019 at 2:51pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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