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ग़ज़ल ..तालीम-ओ-तरबीयत ने यूँ ख़ुद्दार कर दिया

गागा लगा लगा /लल /गागा लगा लगा 

तालीम-ओ-तरबीयत ने यूँ ख़ुद्दार कर दिया,
चलने से राह-ए-कुफ़्र पे इनकार कर दिया.
.

मै ज़ीस्त के सफर में गलत मोड़ जब मुड़ा,
मेरी ख़ुदी ने मुझको ख़बरदार कर दिया.
.

इज़हार-ए-इश्क़ में वो नज़ाकत नहीं रही,                      
क्या दिल की धडकनों को भी अखबार कर दिया??
.
हम आदमी थे काम के ग़ालिब तेरी तरह,   
लेकिन हमें भी इश्क़ ने बेकार कर दिया.
.
सुन ऐ हकीम अब तू दवा मैक़दे की दे, 
तेरी दवाइयों ने तो बीमार कर दिया.
.

फिर आज उनकी तल्ख़ बयानी हुई है तेज़,
फिर आज मैंने मिलने से इनकार कर दिया.
.
बरसा ख़ुदा का
नूर तो रौशन हुई ग़ज़ल,
जुगनू बना के मुझ को चमकदार कर दिया. 
.
निलेश "नूर"

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 21, 2020 at 7:54pm

आ. Saurabh Pandey सर, 
२०१४ की इस ग़ज़ल में आप सभी दाद पाकर संतुष्ट हूँ लेकिन इस की एक त्रुटी आज पकड़ में आई है..
ईश्वर का लाख लाख धन्यवाद है कि मैंने अब तक कोई किताब नहीं छपवाई अन्यथा ये त्रुटी ताउम्र मेरे नाम के साथ चस्पा रहती. एक शेर..
.
सुन ऐ हकीम अब तू दवा मैक़दे की दे, 
तेरी दवाइयों ने तो बीमार कर दिया.
इस शेर में आज सन २०२० में अहसास हुआ 
 कि दवाइयों की जगह दवाओं सहीह रहता अत इस मिस्ते को यूँ पढ़ा जाए,,,,,,
तेरी दवाओं ने मुझे बीमार क्र दिया ..
.
धन्यवाद ..आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 2, 2014 at 1:38pm

शुक्रिया आ. नरेन्द्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 2, 2014 at 1:36pm

शुक्रिया आ. मोहन जी

Comment by मोहन बेगोवाल on September 2, 2014 at 7:15am

 नीलेश जी, लाजवाब गज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई हो  गज़ल का मतला उम्दा हुआ 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 29, 2014 at 12:56pm

एडमिन टीम का बहुत बहुत आभार जो इस रचना को फ़ीचर पोस्ट्स में स्थान दिया गया 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 29, 2014 at 12:54pm
शुक्रिया अलोक जी
Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 29, 2014 at 12:54pm
शुक्रिया अलोक जी
Comment by Alok Mittal on August 29, 2014 at 11:10am

बहुत सुंदर ग़ज़ल नूर भाई ....दिली दाद आपको 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 29, 2014 at 9:21am

शुक्रिया शिज्जू भाई ..


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 29, 2014 at 9:20am

आदरणीय निलेश भैया आपकी ग़ज़ल तो हमेशा ही लाजवाब होती है, आपके
अपर कट से सीमा रेखा से गेंद बाहर ही जाती है, बेहतरीन ग़ज़ल के लिये दिल से बधाई आपको।

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