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एक दोहा गज़ल - नज़रें

एक दोहा गज़ल - नज़रें -(प्रथम प्रयास )


नज़रें मंडी हो गईं, नज़र बनी बाज़ार ।
नज़र नज़र में बिक गया, एक जिस्म सौ बार।
*
नजरों को झूठी लगे, अब नजरों की प्रीत ,
हवस सुवासित अब लगे, नजरों की मनुहार ।
*
नजरों से छुपती नहीं , कभी नज़र की बात ,
नजरें करती हैं सदा, नजरों से व्यापार ।
*
भद्दा लगता है बड़ा ,काजल का शृंगार ,
लुट जाता है जब कभी ,नजरों का संसार ।
*
कह देती है हर नज़र , अन्तस की हर बात ,
कहीं नज़र की जीत है, कहीं नज़र की हार ।।

सुशील सरना / 31-8-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Chetan Prakash on September 10, 2021 at 4:51pm

नमस्कार,  भाई सुशील सरना  जी, दोहा ग़ज़ल  का आपका  प्रयास  अच्छा  ही कहा जाएगा, आपको  इस  हेतु  बधाई  ! लेकिन  दूसरा  दोहा संशोधन  चाहता  है, दूसरा ( सानी ) मिसरा  भाव से विरोधी है , देखिएगा ! सादर   !

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 10, 2021 at 10:25am

बहुत शानदार सृजन है आदरणीय...बधाई

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 7, 2021 at 8:54am

जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ, दूसरे शे'र पर जनाब सौरभ पाण्डेय जी से सहमत हूँ।  सादर।


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Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2021 at 11:49pm

आपने मुग्ध कर दिया आदरणीय सुशील सरना जी. 

सशक्त प्रयास के लिए हार्दिक धन्यवाद. 

दूसरे शेर में अब का दो बार आना तनिक खल रहा है. इस शेर को आप कहीं बेहतर कर सकते हैं. बाकी सभी, पुन: कहूँ, सशक्त हैं. 

Comment by Samar kabeer on September 6, 2021 at 6:26am

जनाब सुशील सरना जी आदाब, दोहे की बह्र पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sushil Sarna on September 4, 2021 at 8:41pm
आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार
Comment by मनोज अहसास on September 3, 2021 at 12:01am

दोहा गजल के लिए अच्छा प्रयास हुआ है आदरणीय बहुत-बहुत आभार

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