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ग़ज़ल- दर्द हरने लगते हैं

1212  1122  1212    22 /112

1

हम आह जब कभी महफ़िल में भरने लगते हैं

नज़र में भर के वो हर दर्द हरने लगते हैं

2

जुनून-ए-इश्क़ में अब क्या सुनाएँ हाल-ए-दिल

ख़याल आते ही उनका सँवरने लगते हैं

3

तेरे बस एक इशारे प ही ओ जान-ए-जाँ

शरारतें मेरे लब ख़ुद ही करने लगते हैं

4

भुलाएँ भी तो उन्हें किस तरह भुलाएँ हम

फ़फोले यादों के जब तब उभरने लगते हैं 

5

वो ख़्वाहिश-ए- ग़म-ए दिल का मुदावा करने को

रुत-ए-फ़िराक़ प इल्ज़ाम धरने लगते हैं

6

पकड़ के हाथ वो करते हैं मुतमुइन "निर्मल"

परेशाँ राहों से जब हम गुज़रने लगते हैं 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Rachna Bhatia on June 24, 2022 at 11:43am
आदरणीय सुशील सरना जी हौसला बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
Comment by Sushil Sarna on June 23, 2022 at 4:31pm
वाह आदरणीया जी बहुत खूबसूरत सृजन है । हार्दिक बधाई आदरणीया जी
Comment by Rachna Bhatia on June 22, 2022 at 8:07pm
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, ग़ज़ल तक आने तथा इस्लाह देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। आदरणीय समर कबीर सर् की इस्लाह आने के बाद आवश्यक सुधार कर लेती हूँ। सादर।
Comment by Rachna Bhatia on June 22, 2022 at 8:07pm
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, ग़ज़ल तक आने तथा इस्लाह देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। आदरणीय समर कबीर सर् की इस्लाह आने के बाद आवश्यक सुधार कर लेती हूँ। सादर।
Comment by Rachna Bhatia on June 22, 2022 at 8:04pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी"‌‌भाई हौसला बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 22, 2022 at 6:17pm

आ. रचना बहन सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by Chetan Prakash on June 22, 2022 at 4:55pm

मुहतरमा, रचना भाटिया निर्मल, आदाब,  अच्छी  गज़ल कही, आपने  ! किचिंत  तीसरे  शे'र के ऊला  मे, मेरी नज़र  में, सुधार की गुंजाइश  है  ! "तेरे बस एक इशारे पे  ही ए जान ए जाँ "  बेहतर  होता  ।

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"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
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