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भिखारिन (हास्य व्यंग्य) अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

छोटे शहर में ब्याही गईं, कुछ महानगर की लड़कियाँ।                   

जींस टॉप लेकर आईं, ससुराल में अपनी लड़कियाँ।।                   

 

बहुयें सभी बन गई सहेली, मुलाकातें भी होती रहीं।     

जींस-टॉप में पहुँच गईं, एक उत्सव में बहू बेटियाँ॥

 

सास -   ससुर नाराज हुए, पति देव बहुत शर्मिंदा हुए।                           

भिखारियों को घर पे बुलाए, साथ थी उनकी बेटियाँ।।

 

बड़ी देर तक समझाये फिर, जींस पेंट और टॉप दिये।                                                         

खुश हुये भिखारी और बोले, पहनेंगी हमारी बे़टियाँ।।                   

 

जींस पहन झोला लटकाये, घूम रहीं हैं युवा भिखारिन।                                            

मुड़ - मुड़कर देखें सब कोई, वृद्ध युवक और युव़तियाँ।।                              

 

भीख माँगती जींस पहनकर, मनचले सीटी बजाते हैं।                          

पैसे ज़्यादा मिलने से, खुश रहतीं भिखारिन बेटियाँ।।  

************************************************** 

-अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव, धमतरी(छत्तीसगढ़)

 

  (मौलिक एवं अप्रकाशित)

                      

 

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Comment by विजय मिश्र on November 28, 2013 at 10:48am
राजेशजी , नमस्कार !
बाजारू से अभिप्राय कि यह टिकाऊ है , दाम के अनुपात में इसका LONGEVITY ,DURABILITY बहुत ज्यादा है ,MAINTENANCE की जरूरत नहीं ,ROUGH -TOUGH है , सस्ता और पहनने में आसान भी है ,इसलिए लोग खरीदते हैं और आरामदेह न होते हुए भी लोग इसे पहनते हैं,भारत के अतिशितोष्ण जलवायु में यह उपयुक्त नहीं है,यह परिधान की श्रेणी में नहीं लाया जा सकता ,इसलिए बाजारू है | बाजारवाद शव्द से मतलब कि इसे आजके दिन STATUS SYMBOL बना दिया गया है ,श्रमिकों की जगह सभ्य समाज भी इसे पहनने लगा है और अब इसे कई COST RANGE में BRANDED PRODUCT का शक्ल देकर अच्छी कीमत तसीला जा रहा है | जिस तरह से इस कविता पर विवाद उठा है ,मैं उससे भिन्न हूँ और पहनने-ओढने को फुहरपन से जोड़ कर नहीं देखता | धन्यवाद और कोई प्रश्न हो तो आमंत्रित |
Comment by Kapish Chandra Shrivastava on November 28, 2013 at 9:22am

आदरणीय बड़े भाई , क्षमा कीजिएगा ,  व्यक्ति के पहनावे अथवा व्यक्तित्व में समय और काल  के अनुसार  परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है | और इस क्रिया में लिंग का कोई भेद नहीं रहा है | नहीं तो हम और आप आज भी अपना शशीर पत्ते और जानवर के चमड़े से ढक रहे होते | पुरुषो एवं लड़को  का लड़कियों जैसे कान में बाली पहनना , ब्यूटी पार्लर जाना और सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करना ,  धोती कुरता से बढ़ते बढ़ते अंग्रेजों की नक़ल -  आयातीत परिधान पेंट शर्ट और जींस पहनना तो हमें स्वीकार है , पर स्त्रियों और  " बेटियों " का नहीं ,  |   यह तो हम पुरोषों की ही ओछी और रुग्ण मानसिकता का परिचायक है | जो हम कपड़ों में  झाँक कर महिलाओं के स्वाभाव और वक्तित्व का आकलन करने  की कोशिश करते हैं | आपकी यह रचना हास्य अथवा व्यंग के बदले व्यक्तिगत भड़ास जादा लगती है | साहित्य के  दृष्टिकोण से भी समझना मुश्किल है की यह गद्य है अथवा पद्य , कविता है या अकविता , शब्दों और वाक्यों का विन्यास भी बहुत कमजोर है | 

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on November 28, 2013 at 12:14am
कविता अपने प्रयोज्यों का सम्मान करती प्रतीत नही होती
न हीं कोई सार्थक सामाजिक व्यंग्य सामने आया।
सादर
Comment by annapurna bajpai on November 28, 2013 at 12:09am

आ0 अखिलेश जी यह तो साहित्यिक मंच है । इस पर आपकी इस रचना ने  किसी पहनावे विशेष को ही इंगित नहीं किया आपने वरन  स्त्री वर्ग को भी इंगित किया है जो  कि ठेस पहुंचा रहा है , मै नीचे कुछ लोगों को छोड़ कर सभी से सहमत हूँ । शायद आपकी रचना सुंदर संदेश देने मे नाकाम लग रही है । 

Comment by वेदिका on November 27, 2013 at 11:41pm

रचना के लिए नया विषय लिया है, खैर रचना के लिए और भी कई सामाजिक मुद्दे हो सकते थे जो कोई सार्थक संदेश देते|  रचना का संदेश भी समझ नहीं आ रहा| क्या कहना चाहती है रचना? यदि हमारी बेटियाँ कुछ रिजेक्ट करती हैं तो भिखारियों की बेटियाँ कैसे उसके योग्य हो सकती हैं? वे भी तो बेटियाँ है न आखिर!   खैर...

रचना के शीर्षक की बात की जाए तो "भिखारिन" कहेंगे या "जींस टॉप का विरोध"? यदि आप विरोध कर भी रहे है इसका तो लिंगभेद के समानुपात मे न करके सबके लिए करते तो शायद रचना व्यापक हो जाती|

सादर !!

Comment by ram shiromani pathak on November 27, 2013 at 11:35pm

आदरणीय आपकी  इस  रचना  से  मुझे बहुत निराशा हुई। ……।कथ्य ,शिल्प,भाव किसी भी स्तर से मुझे रचना नहीं पसंद आयी।  क्षमा सहित। ।सादर 

Comment by Richa on November 27, 2013 at 10:32pm
I agree with meena ji and Rajesh kumari ji..kisi bhi pahnawe me koi dosh nahi hota...dosh aur gandagi insaan ki soch me hoti hai...Droupadi ka cheer haran saree me hi hua tha:)

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 27, 2013 at 9:07pm

आदरणीय विजय मिश्र जी पोशाक बाजारू से आपका क्या तात्पर्य है ??


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 27, 2013 at 9:05pm

आदरणीय मीना पाठक जी की बात का समर्थन मैं भी करती हूँ ना जाने क्यों आपकी  इस व्यंगात्मक रचना में पहनावे के मजाक की बू आ रही है, सच पूछो तो जितना बदन लड़कियों या नारियों का जींस टाप में ढका होता है उतना भारतीय नारी परिधान साडी में भी नहीं होता,समझ नहीं आता इस पहनावे को लेकर पुरुष वर्ग को इतनी आपत्ति क्यों है,दोष पहनावे में नहीं लोगों की सोच में है   

Comment by Meena Pathak on November 27, 2013 at 8:05pm

आदरणीय अखिलेश जी आप ने जिन कपड़ो का मजाक बनाया है वही आज कल सभी लड़कियाँ पहनती हैं और खरीद कर भी हम और आप ही देते हैं फिर इतनी आपत्ति क्यों जींस टॉप से | क्षमा कीजियेगा आदरणीय मुझे अच्छा नही लगा आप का यूँ लड़कियों के पहनावे का मजाक बनाना ..

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