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आसमान में उगता सूरज, जलता सूरज तपता सूरज

बदरियों की बगियाँ में, लुका-छिपी करता सूरज

सांझ सकारे किसी किनारे, धीरे धीरे ढलता सूरज

मैं भी तो इस सूरज सा, चढ़ा कभी कभी ढ़ल गया हूँ

जाने क्यों कहते हैं लोग, की मैं बदल गया हूँ!

हर रंग ढंग में रहता पानी, थमता पानी बहता पानी

आसमान से झर झर बरसे, गागर में फिर भरता पानी

बर्फ सा बनकर जमा धरा पर, आसमान में भी उड़ता पानी

मैं भी तो इस पानी सा, प्यास बुझा के भी जल गया हूँ

जाने क्यों कहते हैं लोग, की मैं बदल गया हूँ!

सनन सनन सर्र बहे हवा, चुप है फिर भी कहे हवा

जहां देखो वहाँ हवा, फिर भी कहीं ना दिखे हवा

चिंगारी ना फूटे इस बिन, आग बुझाने को भी लगे हवा

मैं भी तो इस हवा सा, पर्वत पार निकल गया हूँ

जाने क्यों कहते हैं लोग, की मैं बदल गया हूँ!

खेत में फसल उगाती माटी, मरे को गोदी सुलाती माटी

कभी पैरों से रौंदी जाती, कभी ललाट सजाती माटी

जिस माटी से बने घरौंदे, उसी घर से बहारी जाती माटी

मैं भी तो इस माटी सा, माटी में ही मिल गया हूँ

जाने क्यों कहते हैं लोग, की मैं बदल गया हूँ!

"मौलिक व् अप्रकाशित"

"रणवीर प्रताप सिंह"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2015 at 11:17am

आ० भाई रणवीर जी , इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by Ranveer Pratap Singh on January 27, 2015 at 1:00am

@मिथिलेश वामनकर @जितेन्द्र पस्टारिया @ Hari Prakash Dubey @ शिज्जु "शकूर" आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने मेरी इस कविता को सराहा... 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 9:39pm

आदरणीय रणवीर प्रताप सिंह जी सुन्दर प्रस्तुति हेतु  हार्दिक बधाई !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 26, 2015 at 6:36pm

सुंदर प्रस्तुति, आदरणीय रणवीर जी. बधाई , गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये

Comment by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 11:42am

आदरणीय रणवीर प्रताप सिंह जी सुन्दर रचना हार्दिक बधाई !


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2015 at 7:29am

आदरणीय रणवीर जी अच्छी भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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