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ग़ज़ल - ये बम क्या करें..... (मिथिलेश वामनकर)

212 - 212 - 212 - 212

 

जिंदगी में नहीं कोई गम क्या करें

दिख रही बस खुशी मुहतरम क्या करें

 

टूटकर इश्क भी हमसे कब हो सका 

काम थे और दुनिया में हम क्या करें

 

आप ही गेसुओं की तरफ देखिए 

जो हमें दिख रही आँख नम क्या करें

 

ये शज़र, ये नदी, वादियाँ भी सरल

आदमी को मिले पेचो-ख़म क्या करें

 

मजहबों ने सिखाया सुकूं चैन गर

आपकी जेब में फिर ये बम क्या करें

 

तिश्नगी आब की, ख़्वाहिशें ख्वाब की

मर रहीं हसरतें दम-ब-दम क्या करें

 

एक अरसा हुआ है खुदी से मिले

आशना लग रहे खुद से कम क्या करें

 

दो खिलौने बनाए है जर्रे से फिर,

हो गया आदमी खुशफहम क्या करें

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------

 

बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम

अर्कान – फाइलुन /फाइलुन /फाइलुन / फाइलुन

वज़्न –   212/  212/  212/  212

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 11, 2015 at 4:34pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , एक और अच्छी गज़ल कहने के लिये हार्दिक बधाइयाँ । आदरणीय खुर्शीद भाई जी ने बढ़िया सलाह दी है , जो काबिले गौर हैं ।

तिश्नगी आब की, ख़्वाहिशें ख्वाब की

मर गई हसरतें दम-ब-दम क्या करें   ---   मुझे लगता है -  सानी को ऐसा कहें तो जियादा सही हो  -

मर रहीं हसरतें दम-ब-दम क्या करें    ---  चूँ कि सांसे ज़ारी हैं , तो मेरे ख्याल से मरने की क्रिया भी ज़ारी लगनी चाहिये , मर चुकी कहें तो , मरने की क्रिया ख़त्म हो चुकी है , ऐसा लग रहा है । सोच के देखियेगा ॥

Comment by mrs manjari pandey on March 11, 2015 at 11:44am

जिंदगी में नहीं कोई गम क्या करें

दिख रही बस खुशी मुहतरम क्या करें

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ऐसी ही ख़ुशी बनी रहे । अच्छी बात है । बहुत बहुत बधाई । 

Comment by Neeraj Neer on March 11, 2015 at 9:02am

वाह वाह अदरणीय बहुत खूब गजल.... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 10:40pm

आदरणीय राजेश दीदी ..

देखिये करता हूँ. 

आपने मिसरा-ए-उला बहुत बढ़िया सुझाया है .. आभार 

मजहबों ने सिखाया सुकूं चैन गर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 10:15pm
आदरणीया राजेश दीदी, रचना पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन से सदैव रचनाकर्म को प्रोत्साहन मिलता है। आपको ग़ज़ल के अशआर पसंद आये लिखना सार्थक हुआ। हार्दिक आभार। नमन

त्रुटी सुधारता हूँ।

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Comment by rajesh kumari on March 10, 2015 at 10:12pm

देखिये ठीक है देखियें नहीं होता 


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Comment by rajesh kumari on March 10, 2015 at 10:10pm

मजहबों ने सिखाया है चैनो-अमन----मजहबों ने सिखाया सुकूं चैन गर ---करेंगे तो मेरे ख़याल से  बात बन जायेगी 

आप ही गेसुओं की तरफ देखियें---यहाँ देखिये कर दीजिये टंकण त्रुटी आ गई है  जो दोष पैदा कर रही है 

तिश्नगी आब की, ख़्वाहिशें ख्वाब की

मर गई हसरतें दम-ब-दम क्या करें-----बेहद खूबसूरत शेर 

 

एक अरसा हुआ है खुदी से मिले

आशना लग रहे खुद से कम क्या करें----क्या बात क्या बात 

सुन्दर ग़ज़ल हुई है मिथिलेश जी दिली दाद कबूलें 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 10:08pm
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी
आदरणीय महर्षि भाई जी
आदरणीय राज बुन्देली जी
आदरणीय श्याम जी
ग़ज़ल पर स्नेह और सराहना के लिए ह्रदय से आभारी हूँ।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 10:04pm
आदरणीय विजय शंकर सर, स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार। नमन

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 10:03pm
आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, ग़ज़ल पर आपकी सराहना पाकर आनंदित हूँ। हार्दिक आभार। नमन

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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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