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व्यर्थ है ...

व्यर्थ है
अपनी आशाओं को
दियों की
उदास पीली
मटमैली रोशनी में
मूर्त रूप देना

व्यर्थ है
प्रतीक्षा पलों की
चिर वेदना को
कपोलों पर
खारी स्याही से अंकित
शब्दों के स्पंदन को
मूर्त रूप देना

व्यर्थ है
शून्यता में विलीन
पदचापों को
अपने स्नेह पलों में
समाहित कर
मौन पलों को
वाचाल कर
मन कंदरा के
भावों को
मूर्त रूप देना

हाँ
जानती हूँ
व्यर्थ है
सब कुछ
प्रेम
प्रतीक्षा
भाव
समर्पण
खारी लकीरें
मुंह चिढ़ाते
अंतरंग स्पंदन
सब व्यर्थ है
पर
फिर भी
न जाने क्यूँ
ये दिल है
जो मानता ही नहीं
बार बार
चाहता है
तुन्द हवाओं के  बीच
अविश्वास की रेत पर
विशवास को
मूर्त रूप देना

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on July 22, 2017 at 4:34pm

आदरणीय  vijay nikore जी सृजन को अपनी स्नेहिल प्रशंसा से अलंकृत करने का शुक्रिया।

Comment by vijay nikore on July 21, 2017 at 11:22am

हमेशा  की तरह आपसे यही उमीद थी... बहुत ही सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय सुशील जी।

Comment by Sushil Sarna on July 20, 2017 at 4:34pm

आदरणीय नरेंद्र सिंह चौहान जी सृजन को अपनी स्नेहिल प्रशंसा से अलंकृत करने का शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on July 20, 2017 at 4:34pm

आदरणीय मो.आरिफ साहिब सृजन को अपने स्नेह से पोषित करने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on July 20, 2017 at 4:32pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब  ... सृजन को आपका आशीर्वाद न मिले तो अधूरापन लगता है।  आपकी इस आत्मीय प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।  सब व्यर्थ है मुझे सही लगता है   .... बाकी इंगित टंकण त्रुटि को मैं अभी दुरुस्त किये देता हूँ  ... इस हेतु बन्दे का शुक्रिया कबूल फरमाएं सर। 

Comment by narendrasinh chauhan on July 19, 2017 at 3:30pm

लाजवाब  रचना के लिए  हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Mohammed Arif on July 19, 2017 at 2:11pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब , बेहतरीन रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Samar kabeer on July 19, 2017 at 12:01pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत सुंदर और शानदार कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'हाँ जानती हूँ....के बाद वाली पंक्तियों के अंत में'सब व्यर्थ है' को "सब व्यर्थ हैं'लिखना उचित होगा क्या ?
'तुन्द हवाओं की बीच' को "तुन्द हवाओं के बीच" कर लीजियेगा ।

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