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रह गए हम -ग़ज़ल- बसंत कुमार शर्मा

मापनी 2122  2122 212

 

दूर से  नजरें  मिलाते  रह गए हम  

पास उनके आते’ आते रह गए हम

 

कान  पर जूं  तक न रेंगी साहिबों के,

हक़ की खातिर गिड़गिड़ाते रह गए हम   

 

तल्खियाँ हर बात में उनकी रहीं हैं,

प्यार की धुन गुनगुनाते रह गए हम

 

माल लेकर चल दिये वो तो वहाँ से,

स्टेज पर फोटो खिंचाते रह गए हम

 

फुर्र हो कर आसमानों में उड़े वो,

धूल धक्कड़ में नहाते रह गए हम

 

जब मिला मौका उन्होंने दाँव खेले,

प्यार के रिश्ते निभाते रह गये हम

 

इन मकानों का करें तो अब करें क्या,

स्वप्न घर का बस सजाते रह गए हम

 "मौलिक एवं अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 29, 2017 at 5:13pm
आ बसंत जी,
मतले को छोड़ कर हर शेर के ऊला मिसरे में अंतिम 2 मात्रा अधिक है 2122, 2122, 2122 हो रहे हैं सभी ऊला मिसरे।
सानी आपके लिखे अरकान पर हैं अतः बहर से ख़ारिज है ग़ज़ल।
उम्दा भावपक्ष के लिये बधाई।
सादर
Comment by khursheed khairadi on July 29, 2017 at 8:58am
शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय बसंत सर । बहुत बहुत बधाई।
Comment by Mohammed Arif on July 28, 2017 at 5:13pm
आदरणीयबसंत कुमार शर्मा जी आदाब, डहुत बढ़िया ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाल के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
Comment by Shyam Narain Verma on July 28, 2017 at 4:16pm
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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