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ग़ज़ल (सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी)

भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।

पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,
मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।

हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,
बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।

इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।

शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।


आज हिन्दी दिवस पर
22 122 22 // 22 122 22 बहर में

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 19, 2017 at 5:29pm
आ नीरज जी,
अरकान दूसरे हों या तीसरे
सारे जहाँ से अच्छा की तकतीअ कर के देख लें।
सा 2 रे 2 ज 1 हाँ 2/ से 1 अच 2 छा 2// हिन 2 दो 2 स 1 ता 2/ ह 1 मा 2 रा 2 यानी 2212, 122,,, 2212, 122 अब इन्हें किसी भी कॉम्बिनेशन में लिखें, धुन यही रहेगी।
वैसे ग़ज़ल की कक्षा में तकतीअ पर चैप्टर है।
सादर
Comment by Niraj Kumar on September 19, 2017 at 5:28pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी,

आपकी बात सही है कि रचना पूरी तरह लय में है. लेकिन किसी ग़ज़ल की अरूजी साख्त  पर चर्चा  में  कोई बुराई नहीं है. इससे फायदा ही होता है. वैसे मै इस ग़ज़ल पर जनाब समर कबीर साहब की राय से सहमत हूँ.

सादर  

Comment by रामबली गुप्ता on September 19, 2017 at 5:02pm
भाई नीरज जी जब रचना पूरी तरह लय में है तो अरकान के पीछे क्यों पड़े हैं। क्या यह काफी नही कि रचना लयबद्ध और भावपूर्ण तथा कथ्य सुसंगत हैं?
Comment by Niraj Kumar on September 19, 2017 at 4:53pm

आदरणीय निलेश जी.

\\आप ने अरकान क्या ग़लत लिख दिए..लोग आपको  बेबहर साबित करने पर तुल गये.

आप अरकान 
२२१२/१२२// २२१२/१२२    कर लें\\

ये अरकान भी गलत है. मेरी जानकारी में ऐसी कोई बह्र मौजूद नहीं है जिसके अरकानों का क्रम ऐसा हो.

'सारे से जहाँ से अच्छा' के अरकान दूसरे हैं. 

सादर 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 18, 2017 at 10:29pm


.आद0 बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी, बहुत अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई। सादर

Comment by Niraj Kumar on September 18, 2017 at 9:43pm

जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

कोशिश करूगा. शुक्रिया.  

Comment by Samar kabeer on September 18, 2017 at 9:29pm
आप मीर को पढ़ लें और ख़ुद तलाश करें,आपके पास बहुत वक़्त है, कहते हैं न 'अक़्लमंद को इशारा काफ़ी होता है' ।
Comment by Niraj Kumar on September 18, 2017 at 9:20pm

जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

आपके द्वारा दी गयी जानकारी मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. और अरूज़ पर सोचने के लिए एक नयी दिशा देने वाली है. मीर द्वारा किये गए इस तरह के प्रयोगों पर कुछ और रोशनी डालें और कुछ उदाहरण दे तो मेरे लिए बहुत बड़ी मदद होगी.

सादर  

Comment by रामबली गुप्ता on September 18, 2017 at 7:43pm
धन्यवाद भाई नीलेश जी एवं समर भाई साहब। आप लोगों के सपष्टीकरण से जानकारी में काफी इज़ाफ़ा हुआ है।
Comment by Samar kabeer on September 18, 2017 at 3:39pm
बहरों के खेल निराले मेरे भय्या'

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