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ये मान सरोवर का पंकज, आँखों में ढूंढे है पानी- पंकज मिश्रा की गजल

22 22 22 22 22 22 22 22

कब रात हुई कब सुब्ह हुई, इस पत्थर ने कब है जानी
जब ताप चढ़ा ग़म का बेहद, तब धड़कन ने की मनमानी

चिंगारी पैदा होनी है, इस पत्थर से मत टकराओ
शोला ए इश्क़ ही भड़केगा, ग़र तूने बात नहीं मानी

वो सभी कथानक कल्पित हैं, जिनमें प्रियतम से मिलन हुआ
इस देवदास की प्यास अमिट, जो साथ घाट तक है जानी

ले जाना है तो ले जाओ, ये कुंडल कलम व ग़ज़ल कवच
इतिहास भला कैसे बदले, हर युग में कर्ण परम् दानी

इस दर पर लक्ष्मण का स्वागत, लेकिन वो चरण शरण आये
हे राम अवध में कहीं नहीं, पंडित रावण जैसा ज्ञानी

नज़रें नीची रख कर मिलना, इस ओर उठाना प्रतिबंधित
ये मान सरोवर का पंकज, आँखों में ढूंढे है पानी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2017 at 12:59pm
आदरणीय गिरिराज सर नें तो मेरा काम ही असान कर दिया है, सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2017 at 12:58pm
आदरणीय रवि सर, गिरिराज सर तथा रामबली सर आप् सभी के सुझावों पर विचार के लिए समय नहीं निकाल सका, अब फुर्सत में हूँ, शीघ्र ही सुधार होगा
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2017 at 12:57pm
आदरणीय गोपाल सर सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2017 at 12:55pm
आदरणीय बाऊजी सादर आभार, बहुत दिनों बाद उत्तर दे पा रहा हूँ, क्षमा निवेदन है

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 16, 2017 at 4:57pm

आदरणीय पंकज भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ ! ग़ज़ल पर चर्चा भी खूब हुई है , मुझे भी लगता है , आनी काफिया तर लें तो और बेहतर -- उला पर आ. राब बली भाई जी ने सलाह दी है , सानी पर मै प्रयास कर रहा हूँ , देखियेगा - सही लगे तो ?

कब रात हुई कब सुब्ह हुई, इस पत्थर ने कब है जानी

जब ताप चढ़ा ग़म का बेहद , तब धड़कन ने की मनमानी   ....

Comment by Ravi Shukla on February 16, 2017 at 11:52am

आदरणीय पंकज जी आंनद आया आपकी गजल पढ़ कर  बधाई स्‍वीकार करें । मतले पर हमारा भी विचार राम बली जी से मिलता हुआ है अभी उला का ही शब्‍द केवल काफिया का तुकांत मिलाने के लिये ही लग रहा है अगर ई का‍फिया ही रखें तो सुझााव है इसी मिसरे में उतरार्द्ध और पूर्वाद्ध को बदल सकते है जिससे ही शब्‍द का अटकाव नहीं लगेगा पर आनी का कफिया इसे और बहतर बना सकता है । इसके बाद आदरणीय गोपाल नारायण जी का कथन सर्वोपरि है कि शायर का‍ अपना अलग नजरिया  है

ले जाना है तो ले जाओ, ये कुंडल कलम व ग़ज़ल कवच
इतिहास भला कैसे बदले, हर युग में कर्ण परम् दानी  ये शेर हमें बहुत पसंद आया इसके लिये सराहना अलग से लीेजिये ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 15, 2017 at 8:17pm

आ० पंकज जी , बेहतरीन गजल हुयी है , मुझे आ० रामबली जी की बात भी ठीक लगती है . पर गजलकार का  अपना नजरिया है . .

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2017 at 7:28pm
आदरणीय रामबली सर आपका सुझाव सर्वथा उचित है इस पर भी अभ्यास किया जाएगा सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2017 at 7:27pm
आदरणीय मोहम्मद आरिफ सर ग़ज़ल की तारीफ करने के लिए हृदय से आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2017 at 7:27pm
आदरणीय सुरेंद्र नाथ सर बहुत-बहुत आभार

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