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महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था

221 1221 1221 122

********************

महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था ।
तो नग़मा मुहब्बत का सुनाना ही नहीं था ।

रौशन किया जो हक़ से तुझे रोज़ ही दिल में,
वो तेरी निगाहों का निशाना ही नहीं था ।

कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,
ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।

है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,
सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।

होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ, 
मंदिर किसी मस्ज़िद को बनाना ही नही था।

डर डूब के मरने का तेरे दिल में था इतना,
तो इश्क़ के दरिया में नहाना ही नहीं था ।

*****

मौलिक व अप्रकाशित

हर्ष महाजन

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Comment

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Comment by Harash Mahajan on March 23, 2018 at 5:33pm

आदरणीय समर जी प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया ।

सादर

Comment by Samar kabeer on March 22, 2018 at 11:33pm

अब ठीक है भाई,बधाई आपको ।

Comment by Harash Mahajan on March 22, 2018 at 10:15pm

आदरणीय समर कबीर जी आदाब । एक और मतले के साथ पूरी ग़ज़ल आपके समक्ष लाया हूँ सर । आपकी पारखी नज़रों की दरकार है  ...

सादर ।

महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था ।
तो नग़मा मुहब्बत का सुनाना ही नहीं था ।

रौशन किया जो हक़ से तुझे रोज़ ही दिल में,
वो तेरी निगाहों का निशाना ही नहीं था

कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,
ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।

है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,
सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।

होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ, 
मंदिर किसी मस्ज़िद को बनाना ही नही था।

डर डूब के मरने का तेरे दिल में था इतना,
तो इश्क़ के दरिया में नहाना ही नहीं था ।

-----------हर्ष महाजन

Comment by Samar kabeer on March 19, 2018 at 5:46pm

मैंने इसी ज़मीन में अपनी ग़ज़ल आपकी ख़ातिर ही मंच पर पोस्ट की है, जिस पर आपकी प्रतिक्रया भी आ गई है, उसे पढ़कर अपना रास्ता चुनें ।

आपका ये मतला भाव के लिहाज़ से कमज़ोर है, कोई और विकल्प देखें ।

Comment by Harash Mahajan on March 19, 2018 at 5:17pm

आ0 समर जी आदाब । सर तो यकीनन हमें किस राह चलना होगा । कव्वाफी में अलग रंग देखने को मिलते हैं । आपके मार्गदर्शन में एक ओर मतला पेश है सर...

"गर दर्द-ए-मुहब्बत को बताना ही नहीं था,
तो नग़मा गम-ए-हिज़्र का गाना ही नहीं था ।"

लेकिन समर जी मतले के शेर में तो हमने अगर एक क़ाफ़िया सेट हुआ तो अगले शेरों में तो निशाना आ ही सकता है?

सादर ।

Comment by Samar kabeer on March 19, 2018 at 4:12pm

"निशाना" क़ाफ़िया इसलिये मेरे नज़दीक ग़लत है कि उर्दू के हिसाब से ये शब्द 'ज़ेर'से शुरू होता है,और यहाँ हमें "ज़बर" से शुरू होने वाले शब्द के क़ाफिये दरकार हैं,जनाब 'क़ैसर' साहिब जिनकी ज़मीन में ये ग़ज़ल हुई है,उनकी ग़ज़ल में भी कई क़वाफ़ी ग़लत हैं ।

Comment by Harash Mahajan on March 19, 2018 at 3:24pm

आ0 विजय निकोरे जी आदाब । आपकी पसन्दगीके लिए तहे दिल से शुक्रिया ।

सादर ।

Comment by Harash Mahajan on March 19, 2018 at 3:23pm

आ0 समर जी आदाब । इस बार क़ाफ़िया कुछ अजीब कारीगिरी में फंस है सर । लेकिन मैंने जो काफिये इस्तमाल केरने की कोशिश की है उसमे योजित शब्द ही हटाना चाहिए । अगर बढ़ा हुआ शब्द मूल शब्द को ही बिगाड़ दे तो?

मेरा इस्तमाल किया क़ाफ़िया "निशाना" भी इसी में नहीं लगता क्या? 

सादर

Comment by vijay nikore on March 19, 2018 at 11:56am

बहुत अच्छे जज़बात हैं। बधाई।

Comment by Samar kabeer on March 19, 2018 at 11:36am

जनाब हर्ष जी आदाब,निलेश जी से सहमत हूँ,मेरे ख़याल से इस ग़ज़ल में 'निशाना' क़ाफ़िया से भी बचना होगा,ज़माना,बताना,जताना वग़ैरह ही क़ाफिये सही होंगे ।

इस जमीन में कुछ दिन पहले मैंने भी ग़ज़ल कही थी,आज अगर वक़्त मिला तो मंच पर साझा करूँगा ।

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