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चाह जीने की अगर, तुझमें पनपती है प्रबल,

रास्ता रोकेगा कैसे, फिर तुम्हारा दावानल ।

चाहे जितनी मुश्किलें, आयें तुम्हारे सामने,

तुम कभी करना नहीं, अपनों नयनों को सज़ल ।

जिंदगी के रास्ते, इतने सरल होते नहीं,

तुझको भी पीना पड़ेगा,अपने हिस्से का गरल ।

तू अगर सच्चा है तो फिर, डर तुझे किस बात का,

मंजिलों की जुस्तज़ू में, हौसले लेकर निकल ।

कर नहीं पायेगी तुझको, कोई भी मुश्किल विकल,

गर इरादे होंगे तेरे, आसमां जितने अटल ।

स्याह रातें अब नहीं, तुझको सताएंगी कभी,

देख आँखें खोल के, सूरज भी आया है निकल ।

न उम्मीदी का ये गुंचा, जब कभी मुरझायेगा,

फिर लिखूंगा मैं तेरी, खातिर कोई ताज़ा ग़ज़ल ।

 

-प्रदीप भट्ट -(उपरोक्त रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है )

 

 

 

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 1, 2018 at 1:07pm

धन्यवाद जनाब 

Comment by Samar kabeer on September 1, 2018 at 12:31pm

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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