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गजल- इतना भी समझदार नहीं था

वज़्न 221   1221 1221 122

 

दिल लूट के’ कह दे कि खतावार नहीं था

वो इश्क में इतना भी समझदार नहीं था

 

आँखों से’ उड़ी नींद बताती है’ सभी कुछ

कैसे वो’ कहेगा कि उसे प्यार नहीं था

 

क्यों फेंक दिया उसने कबाड़े में मुझे यार

पुस्तक था’ मुहब्बत की’ मैं’ अख़बार नहीं था

 

इस देश में’ इन्साफ की’ दुनिया है निराली  

पकड़ा वो’ गया है जो’  गुनहगार नहीं था

 

जब तक थी’ गरम जेब तो’ नजदीक सभी थे

बदला जो’ समय कोई’ मददगार नहीं था  

 

परदेश का’ रुख उसने’ किया यूँ ही’ नहीं है

कोई भी’ यहाँ उसका’ खरीदार नहीं था

 

लग जाता’ गले से तो’ भुला देता’ गिले सब

मुझको भी’ मुहब्बत से’ तो’ इंकार नहीं था

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on September 2, 2018 at 11:48pm

आदरणीय बसंत कुमार जी अच्छी ग़ज़ल हुई है  मुबारकबाद कुबूल करें

Comment by Ajay Kumar Sharma on September 2, 2018 at 4:55pm

लाजवाब....

बहुत सुन्दर गजल...

Comment by Samar kabeer on September 2, 2018 at 2:43pm

जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

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