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ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह जुलाई 2020–एक प्रतिवेदन      ::  डॉ. गोपाल नारा

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य गोष्ठी 26 जुलाई 2020 (रविवार) को दिन में 2 बजे प्रारंभ हुई i इस कार्यक्रम की अध्यक्षता सुश्री कुंती मुकर्जी ने की I कार्यक्रम के बीच अचानक अस्वस्थ हो जाने पर यह दायित्व प्रसिद्ध कवयित्री आभा खरे ने निभाया I संचालन ओज के कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने किया I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में डॉ. शरदिंदु मुकर्जी के आलेख ‘गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर–एक सरव, विच्छिन्न चिंतन’ पर साहित्यिक परिचर्चा हुयी, जिसमें ओबीओ लखनऊ-चैप्टर के लगभग सभी सदस्यों ने प्रतिभाग लिया, जिनमें  नमिता सुंदर, मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’, अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ तथा भूपेन्द्र सिंह के विचार सराहनीय रहे I इसका प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओबीओ एडमिन को भेज दिया गया है.

कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य प्रस्तुति होनी थी I इस बीच अध्यक्ष कुंती जी अस्वस्थता के कारण अपनी रचना साहित्य अनुरागियों को सौंप कर चली गयीं I आगे का कार्यक्रम सुश्री आभा खरे जी की अध्यक्षता में हुआ I स्वाभाविक रूप से पहले कुंती जी की रचना पर विचार हुआ I 

कुंती जी प्रकृति की अद्भुत चितेरी हैं I उनका मन किसी उन्मुक्त विहग की भाँति प्रकृति के आयाम बीच फिरता रहता है I शायद सोते में भी और जागते में भी I उनकी प्रस्तुत कविता में भी यही रंग है, जो अंत में एक प्रश्न छोड़ता है कि आखिर सूफी मन दिशाहीन क्यों हुआ? आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ भी इसी उलझन में दिखे I इस कविता के बारे में अजय कुमार श्रीवास्तव ने एक दिलचस्प उद्धरण देते हुए कहा कि- ’मुझे Robert Frost की कविता याद आती है– ‘Stopping by woods on a snowy evening’. जिसमें कवि प्रकृति से सम्मोहित होकर अपने कर्तव्य को क्षण भर के लिए भूल जाता है l लेकिन फिर उसे याद आता है कि-‘-- miles to go before I sleep.’ इस संबंध में नमिता सुंदर ने कहा कि miles to go -- तो एक प्रकार से Robert Frost  का पर्याय ही बन गया I कवि हृदय कौशाम्बरी जी ने भी अपनी याद ताजा की कि जब हम पढ़ते थे तब हमें ‘ woods are lovely dark and deep.’के बारे में बताया गया था कि यह पं० जवाहरलाल नेहरू की पसंदीदा कविता थी I डॉ. शरदिंदु जी ने इस अवसर पर हरिवंशराय बच्चन द्वारा अनूदित उक्त कविता की पंक्ति ‘गहन सघन मनमोहक वन तरु मुझको आज बुलाते हैं’ का स्मरण किया I फिलहाल कुंती जी की कविता की एक बानगी प्रस्तुत है –

झीने झीने कोहरे सजल

अक्सर मुझे लुभाते रहे

मैं__अपने मय से जूझता रहा

उस लुभावनेपन से

और मेरा सूफी मन

दिशाहीन होता रहा.

संचालक ‘मनुज ने कहा– ‘विद्वतापूर्ण माहौल ज्यादा हो तो बोझिल हो जाता है I’ यह संकेत था कि वह माहौल को हल्का फुल्का करना चाहते थे i ऐसे में श्री मृगांक श्रीवास्तव जी का अक्स मन में उभरा और सचमुच उनकी प्रस्तुति का ही आह्वान हुआ I मृगांक जी ने माँ हंसवाहिनी का वंदन करते हुए कई हास्य-व्यंग्य परक रचनायें  प्रस्तुत कीं पर जिन रचनाओं ने सर्वाधिक यश लूटा, वे निम्नप्रकार हैं -

1-धूर्त चिनफिंग की तरह

चीनी वायरस भी दे रहा है धोखा

नये नये लक्षण  

बिना लक्षणों के भी टेस्ट आ रहा है पाज़िटिव

खाते समय मैं पत्नी से बोला

सब्जी में नहीं आ रहा है टेस्ट पाज़िटिव

वो बोली, हाय राम पुलिस को रिंग करते हैं 

तुम्हें कोविड हो रहा है।

2-लोग सुबह अखबार में, राशिफल देखें दिन कैसा रहेगा।

वो तो सुबह बेड टी के लिए, अदरक की कुटाई की आवाज से ही।

अंदाजा लगा लेता है, आज दिन कैसे कटेगा।

 

डॉ, अंजना मुखोपाध्याय की पहली कविता में नारी की पीड़ा का बड़ा मार्मिक वर्णन है i बेटी से अचानक बहू हो जाने के बीच बहुत बड़ा अंतराल है I तभी तो अंजना जी कहती हैं - ‘हर 'तमस' को अग्नि अर्पित स्वाहा हुए भरम।‘ 

एक और पद विन्यास में पिता के घर में मुक्त जीवन के आनंद का वर्णन है, जो बेटी से बहू बनते ही मर्यादा के अनेक अवगुंठन में सिसकने लगता है I तीसरे पद विन्यास में वह  पुरुषोचित अभिमान व्यंजित है जिसमें दम्भ यह है कि-‘ मैं हूँ पिता की सम्पूर्ण शक्ति का वारिस I’ इन कविताओं के माध्यम से अंजना जी ने एक बेटे और बेटी की परवरिश और परिवार द्वारा उनमें बरते जाने वाले पक्षपात के बीच अपनी महत्त्वाकांक्षा की समीक्षा की है I कविता की भावना हमें वहाँ तक ले जाती है जहाँ बेटे की गलती पर भी बेटी को पीटा  जाता है और बेटे को बेटी के मुकाबले अच्छे से अच्छा खिलाया जाता है, इस पक्षपात के बाद भी बेटी प्रायशः आनंदित रहती है कि कम से कम अभी कफस में तो नहीं है I इस कविता के सबंध में आलोक रावत ’आहत लखनवी’ के विचार यह रहे  कि - आधुनिक  संबंधों का आदि से अंत तक विश्लेषण करती हुई कविता। पारिवारिक विघटन की प्रक्रिया का प्रारंभ, उसका कारण एवं परिणाम दृष्टव्य है ।‘ कविता के कुछ अंश कवयित्री के शब्दों में इस प्रकार हैं -

परिज्ञात थामैं वंश रक्षक

परिवार ने भी पा लिया था

धनाढ्यता का 'मान' दर्शक।

घर की ड्योढ़ी परवरिश में

 

कवयित्री कौशाम्बरी की पहली कविता आधुनिक नारियों के विद्रोही तेवर और हर बात पर उनके अधिकारों की लंबी मांग को ख़ारिज करती है I उन्हें कष्ट इस बात का है कि - 

आज की कलयुगी सीता

मूल्य अपने खो रही है

भूमिजा क्यों रो रही है ?

जन्म देकर लव-कुशों को

ना कभी अधिकार माँगा

ना कभी घर-बार माँगा

दावा किया उसने न कोई

ना कोई प्रतिकार माँगा

अपनी एक अन्य कविता में भी उनका यही आक्रोश फूटता है – ‘ अपनी जय-जयकार चाहिए I बराबरी का नाम चाहिए II‘ कवयित्री यह भी कहती हैं कि नारी को जितने अधिकार प्राप्त हैं उतना भार ही उसके लिए उठाना मुश्किल है तो फिर और मुसीबत मोल लेकर क्या प्रमाणित करने का हौसला देती है, जैसे सीता ने स्वयं अपनी सत्ता को प्रमाणित किया और अग्निदेवता उनका कुछ भी न बिगाड़ सके I यह सच्चाई भी है, प्रतिस्पर्धा के इस युग में सफल होने के लिए स्वयं को प्रमाणित करना ही पड़ता है I इसीलिए कौशाम्बरी जी नारी का पथ निर्देश इस प्रकार करती हैं-

स्वाभिमान से जीना सीखो

अपने बल पर चलना सीखो I

सरल हृदय में रहना सीखो

कर्मठ  होकर  जीना सीखो I

स्वयं सिद्ध कर निज सत्ता को

निर्भयता  से  ऊपर उठकर

गौरव बन तुम जीना सीखो I

 

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने बह्रे-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ मुफ़ाईलुन  मुफ़ाईलुन  फ़ऊलुन / 1222   1222  122 में एक ग़ज़ल प्रस्तुत की i इसका मतला है - 

मुहब्बत बन छलकना चाहता हूँ I

मैं उन आँखों में सपना चाहता हूँ I

इस ग़ज़ल के शेरों में जीवन के कई रंग दिखते हैं I कुछ अशाआर तो बहुत ही खूबसूरत बन पड़े हैं I जैसे-

मुझे पत्थर समझ कर फिर तराशो,

नयी सूरत में ढलना चाहता हूँ II

मैं रिश्तों पर जमा हूँ बर्फ़ बनकर,

तमाज़त दो, पिघलना चाहता हूँ II

आलोक रावत ’आहत लखनवी’ ने बड़े सूफियाना लहज़े में अपनी ग़ज़ल का मतला पेश किया-

किसलिए आख़िर भला रिश्ता ये जिस्मानी रहे I

है   तक़ाज़ा-ए-मोहब्बत   इश्क़  रूहानी  रहे II

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ/ फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन / 2122 2122 2122 212 में कही गयी इस ग़ज़ल के अधिकांश, अशआर काबिले तारीफ हैं, जिसमें से  चंद यहाँ दरपेश हैं -

चाहने वाले समझ लेते हैं हाले दिल युँ  ही

ये ज़रूरी  तो नहीं  है आंख में  पानी रहे II

फ़ायदा आखिर भला क्या साथ रहने से तिरे

साथ मेरे तू  रहे  फिर  भी  परेशानी रहे II

इश्क़ की दीवानगी मुमकिन तो है लेकिन जहाँ 

इक तरफ कान्हा उधर कान्हा की दीवानी रहे II

आलोक जी की इस ग़ज़ल का मक्ता तो अद्भुत है , उसका जिक्र न करना शायर के साथ बेइंसाफी होगी -

देखकर अब ये किसी को  आह भी  ना भर सकें

इतनी ज्यादा भी भला क्या दिल की निगरानी रहे II

 

अजय कुमार श्रीवास्तव ’विकल’ के अनुसार जीवन में अति सर्वथा वर्जित है l प्रेम ज़ब अध्यात्म की ओर बढ़ता है तो वह ईश्वर के नजदीक पहुँचता है l जीवन संघर्ष भी है l joy and woe are woven fine कवि William Blake की कविता सुख -दुःख को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानती है I इस प्रतिवेदक को भी जयशंकर प्रसाद  का एक पद-विन्यास  याद आ रहा है I  उन्होंने ‘आँसू’ काव्य में लिखा था –

सुख-दुःख में उठता गिरता,  संसार तिरोहित होगा I

मुड़कर न कभी देखेगा किसका हित अनहित होगा II

मानव जीवन बेदी-पर, परिणय हो विरह मिलन का

सुख-दुःख दोनों नाचेंगे, है खेल आँख का मन का II  

अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ की रचना इस बात की साक्षी है कि अपनी कविता में वे सचमुच विकल हैं I राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में उर्मिला की विकलता और उनका उपालंभ यह कहकर दर्शाया था कि – ‘सखी वे मुझसे कहकर जाते I’

आदर्श भाई के प्रतिमान लक्ष्मण अपनी पत्नी के प्रति इतने संवेदनहीन क्यों हए कि चौदह वर्ष के लिए वन जाते समय उन्होंने न अपनी भार्या को बताया और न उससे मिले I यह एक अन्यथा प्रसंग है I उर्मिला की नारी की पीड़ा का गायन एक पुरुष कवि ने किया I क्या एक पुरुष नारी के अंतर्मन को सही तरीके से पढ़ सकता है I अगर कुंती मुकर्जी के स्थान पर किसी पुरुष ने मारीलूज आलिया जोजेफीन का आख्या लिखा होता तो क्या वह उन सतहों तक पहुँच पाता जो पुरुष के चिंतन में अनछुए रह जाते हैं I इस दृष्टि से ‘विकल’ जी की कविता का संतुलन सही दिखता है क्योंकि उनकी पीड़ा नर और नारी दोनों की हो सकती है I उन्होंने इसके लिए कोइ विभाजन रेखा नहीं खींची I कविता का मुखड़ा 14 मात्राओं का है और इसके पद-विन्यास 16 मात्राओं के हैं I  यह पद-पादाकुलक छंद का कोई भेद हो सकता है I यदि मुखड़ा भी 16 मात्रिक होता तो यह गीत पद्धरिय हो सकता था I यदि इसके भाव-पक्ष की बात करें तो यह अद्वितीय है I उषा, अरुणोदय, साँझ और रजनी जैसे कितने ही रूपों में अपने कथ्य को प्रस्तुत करने का औचित्यपूर्ण वातावरण रचने में ‘विकल’ जी पूरी तरह सफल हुए है I प्रकृति के रूप और अपरूप को उनकी लेखनी बड़ी दिव्यता से पकड़ती है I आप कोई भी पद-विन्यास उठा लीजिये, वह आपको निराश नहीं करेगा i इसलिए एक ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है –

शीतल तप्त नियति है अपनी, संध्या कहती दिनकर से l

ओस कणों से विभा संवारे अंजुलि भर देती कर से ll

          वपु शीतल पर मन जलता है l

तनिक पास सहकर जाते I  कुछ हम से कहकर जाते ll

अगला आह्वान इस प्रकार था - आ0 शरदिंदु जी का कम से कम तीन भाषाओं पर अधिकार तो मुझे ज्ञात ही है I हो सकता है और भाषाओं पर भी उनकी पकड़ हो । उनका चिंतन पक्ष बहुत सबल है।ऐसे श्रेष्ठ विचारक को मैं उनकी कविता के लिए आमंत्रित करता हूँ।

डॉ. शरदिंदु जी ने अपनी कविता ‘और कितने मुखौटे’ शीर्षक से प्रस्तुत की I इस धरती पर मनुष्य ने अपने लिए बहुत से मुखौटे बनाये I मसलन वह बुद्धिमान है, प्रगतिशील है, धर्मभीरू है और साहसी भी I इतने ही नहीं और भी हजार-हजार मुखौटे जिसने पृथ्वी का दोहन किया और सर्वनाश भी I पर इन सारे मुखौटे की पोल एक ही झटके में खुल गयी जब प्रकृति ने अपना एक नन्हा सा प्रतिनिधि भेजा–कोरोना I बड़े-बड़े बाहुबली अपने घरनुमा दड़बों में कैद हो गए I कवि कहता है अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है-

फेंको ये मुखौटे

उतारो नका़ब

थोड़ी हवा लगने दो उस अंतर्लीन को

जो ईश्वर की आशा

और तुम्हारा सत्य बनकर

अभी भी जीवित है

अखंड ज्योति के मानिंद  ।

कवयित्री नमिता सुंदर को तिमिर से कोई परहेज नहीं I तिमिर तो सब जगह है I हम में        है,  तुम में है सब में है I प्रकाश द्वार नहीं मिलता तो न सही I हम अपने तिमिर आपस में मिलायेंगे I इससे क्या होगा ? यहाँ कविता बड़ी ऊहात्मक हो जाती है I आलोक रावत  ‘आहत लखनवी’ के विचार इस कविता के सबंध में इस प्रकार हैं – किसी भी चीज की अधिकता उसकी समाप्ति की उद्घोषणा होती है i अंधकार का हद से बढ़ जाना ही प्रकाश के उदय की संभावना को जन्म देता है I ओशो का दर्शन भी कुछ कुछ ऐसा ही हैI’ फ़िलहाल कवयित्री के अनुसार तिमिर के संयोजन से ही  तिमिर का पारावार दम तोड़ता है -  जोड़ते चले जायेंगे / अपना तिमिर /  तुम्हारे तिमिर से / उसके तिमिर से / जुड़कर ही तो होगा निर्मित / उदात्त उदधि /जिसके रहते / कैसा भी हो तिमिर पारावार / तोड़ने ही लगता है दम / आहिस्ता आहिस्ता .

लोकप्रिय ग़ज़लकार डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी की ग़ज़ल बहरे हजज़ मुसमन अख़रब मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़/ मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन/ 221 1221 1221 122 पर आधारित थी i नवीन जी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर बनते जा रहे हैं I जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की उसका मतला शानदार है और मकते ने तो मानो दिल ही लूट लिया I  कुछ और अशआर भी कमाल के हैं i जैसे- 

कुछ  वक्त मेरे  साथ बिताने के  लिए आ।

तू शमअ  सरे  बज़्म  जलाने  के लिए आ ।।

टूटे न मुहब्बत का भरम तुझ से किसी का

इक बार  ज़माने को दिखाने  के लिए आ ।।

बाकी  हैं  मेरे  हक़  के अभी और उजाले 

ऐ  चाँद  यहाँ  फ़र्ज़  निभाने के लिए आ ।।

डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने नारी के प्रति कौशाम्बरी जी के ही दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए अपना गीत पेश किया,  जो रोला छंद के मात्रिक विन्यास (11, 13 )पर आधारित था I इसमें आधुनिक नारी की विद्रोही सोच को चुनौती दी गयी है या यूँ कहें कि यह नारी विमर्श के सापेक्ष पुरुष विमर्श की एक प्रतिध्वनि है I इसकी भावदर्शी झाँकी इस प्रकार है -

मेरा सीमित प्यार तुम्हें आयाम चाहिए I

मुझमे पाती त्राण

कहाँ विश्वास खो गया ?

उर में बसते प्राण

आज क्यों स्वप्न हो गया

वह मादक मनुहार तुम्हे अविराम चाहिए I

 

पावन मंगल-सूत्र 

आज क्या नाग हो गए ?

माथे का सिंदूर   

कहो कब आग हो गये ?

तुमको कैसा साथ प्रिये अभिराम चाहिए I

उक्त गीत के संबंध में अलोक रावत ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जीवन में प्रेम सबसे महत्वपूर्ण है। यदि इसके अतिरिक्त कुछ और की चाहना हो तो क्या कहा जाय। क्या प्रेम में भी एकरसता या नीरसता का भाव आ सकता है। यदि ऐसा है तो फिर उससे अधिक महत्वपूर्ण क्या हो सकता है। इच्छाओं का कोई अन्त नहीं। आखिर चाहिये क्या?’

संचालक मनोज कुमार शुक्ल ’मनुज’ ने वर्णिक छंद घनाक्षरी में वर्षा और शनिन्नो (गुडिया/ नागपंचमी) के बड़े ही मनोरम चित्र प्रस्तुत किये i इनमें से एक छंद यहाँ उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है, जिसमें पुनरुक्ति-प्रकाश तो है ही मानवीकरण अलंकार का आद्योपांत सुंदर निर्वाह हुआ है –

चपला कड़क कर बादल को भींचती है,

  अपना  कसाव  पोर-पोर है बढ़ा रही।

     बढ़ता  कसाव  पड़ती फुहार जरे गात,

         अपना  नशा है कोर-कोर में चढ़ा रही।

चढ़ा रही वश में है करती झुमाती है वो,

    भाव-भूमि  मन की है उससे कढ़ा  रही।

        दामिनी भी नेह सलिला में डूबी जा रही है,

            बादल को पाठ नेह का है वो पढ़ा रही।

कवयित्री नमिता सुंदर को इस प्रस्तुति ने आह्लादित कर दिया I उनके अनुसार इस कविता में वेगवती बरखा है, भोले बाबा हैं, सावन है तो मायका है और प्रेम न हो...ऐसा कैसे.. तो समूचा सावन जीवंत कर दिया.... मस्ती है, उफान है, टीस है, कसक है... 

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी का अनुभव तो अनोखा ही था, उन्हें लगा कि रचना नहीं मानों बारिश की बूँदें उनकी अटरिया पर उद्दाम नाच रही हों !

अंत में अध्यक्ष आभा खरे जी ने अपनी रचना प्रस्तुत की I संचालक ‘मनुज’ ने जो सावन और पावस का मेल कराया था उसमें चाय का हक तो बनता ही था और अध्यक्ष आभा जी सचमुच ही अपनी कविता में चाय लेकर आ गयीं I  घर से दूर रहने की विवशता में  यह चाय कैसी राहत देती है वह इस कविता में व्यक्त है I 

घर से दूर हुए हैं जबसे

मिला न तबसे

दाल-रोटी खाना

पिज्जा, बर्गर, भुजिया, बिस्किट

या फिर होता

मैगी कभी बनाना

 

पर अक्सर ही

पी लेते हैं

हम सैलानी

डिप-डिप वाली....चाय !!

आभा जी ने इस हल्की-फुल्की रचना के बाद अपनी दूसरी रचना से सबको सहसा स्तब्ध कर दिया I 

तसल्लियाँ...तुम्हारी जेब में

पड़ी हैं खोटे सिक्कों सी

जो मुझ पर ख़र्च करते

तो अनमोल होतीं ..!!

रसाभास की यह स्थिति सबको झकझोर गयी I विशेषकर तब जब अध्यक्ष महोदया की प्रस्तुति परवान चढ़ी –

तुम्हारा आना और चले जाना / ठीक वैसे ही है / जैसे कि हो/ मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा की / तनख़्वाह कोई / इधर मिली / उधर ख़र्च हुई / और फिर इंतज़ार / अगले महीने की पहली तारीख़ का..!!--

फिर वही हुआ, मेरा मन मध्यमवर्गीय संवेदना में उलझ गया, कुछ इस तरह –

आफिस से लौटकर

घर में कदम

रखे ही थे कि

पत्नी ने टोक दिया

कोई गिफ्ट लाना होगा

पड़ोस में पार्टी है

बर्थ डे है सलोनी का

 

ये क्या

ताले से पड़ गये पैरों में 

क्या तारीख है, 

जानती हो ?

मैंने पैंट की जेब में

इकलौती पड़ी अठन्नी

को टटोल कर पूछा

 

‘मैं तो जानती हूँ

पर वह कुतिया नहीं जानती’

‘कौन पड़ोसन ?’

‘नहीं सलोनी

उसकी  

डोमेस्टिक बिच’ (सद्य रचित )

( मौलिक/अप्रकाशित )

 

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