ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 23 अगस्त 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई i इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ, शरदिंदु मुकर्जी ने की I संचालन कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने किया I कार्यक्रम के प्रथम सत्र में कवि श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ की निम्नाकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार रखे I
कविता - कर्मपथ
जिसने नभ की ऊंचाई को, अपना लक्ष्य बनाया है l
वही व्यक्ति इस धरा गर्भ से, रत्न ग्रहण कर पाया है ll
धाराओं को चीर बहे, अवरोधों की परवाह नहीं l
दौड़ रहे उसके पैरों में, काँटों की भी आह नहीं ll
विप्लव हो या आंधी आये, उसको स्वप्न सजाना है l
मूर्ख मित्र से बढ़कर जिसने, शत्रु बुद्धि को माना है ll
विपरीतों में रहकर जिसने, गीत प्रेम का गाया है l
वही व्यक्ति इस........... l
कठिन तपस्या करके भी, जो नहीं किसी से हारा है l
और मेनका के वाणों को, कभी नहीं स्वीकारा है ll
जिसकी वाणी नभ में गूंजे, और चरण से धरा हिले l
युवा सिंह ज़ब गरज उठे तो, जीते कितने यहाँ किले ll
चट्टानों की छाती से, जिसने जल धार बहाया है l
वही व्यक्ति इस........... l
चींटी जैसी अल्प जीव भी, अथक पथों पर चलती है l
समय और कालों की गति से, आगे और निकलती है ll
गजमुक्ता से नागमणि का, स्वप्न सत्य कर सकते हो l
धरती और पाताल, गगन को, प्रतिभा से भर सकते हो ll
अपने मन में धैर्य चेतना, जो लेकर के आया है l
वही व्यक्ति इस........... l
इतना भी यह सरल नहीं, जो एक सफलता मिल जाए l
सदियों तक मंथन करते, तब एक बूँद अमृत पाए ll
अथक परिश्रम करके ही, पर्वत में मार्ग बनाते हैं l
गरज रही लहरों के सम्मुख, अपने पैर जमाते हैं ll
नदी-नीर को सागर जल से, जिसने यहाँ मिलाया है l
वही व्यक्ति इस........... l
संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज‘ ने श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ की उक्त कविता पर विचार रखने के लिए सबसे पहले कवयित्री नमिता को आमंत्रित किया i नमिता जी के अनुसार विचाराधीन कविता कर्म और कर्मठता के महत्व को प्रदर्शित करती है और अत्यंत प्रेरणादायक है I प्रतिमानों का सटीक प्रयोग कविता को प्रभावी बनाता है I जैसे एकाग्रता, एकचित्त हो उद्देश्य प्राप्ति के प्रति समर्पित होने के भाव को उकेरने के लिए ‘मेनका के वाणों को, कभी नहीं स्वीकारा है’ और स्वप्न को वास्तविकता में परिवर्तित करने की दुर्गमता को दर्शाने के लिए ‘गजमुक्ता’ और ‘नागमणि’ सी दुर्लभ बहुमूल्य चीजों का उल्लेख I इन्हीं सबके बीच अनवरत कर्मठ नन्ही चींटी कविता का व्यापक फलक उसे उसके समस्त रूप में प्रतिष्ठित करता है I
श्री मृगांक श्रीवास्तव ने कहा कि ‘विकल’ जी की कर्मपथ कविता बहुत ही प्रेरणादायक है बल्कि यों कहें कि प्रेरणाएं गागर में सागर हैं । उन्होंने अपनी कविता द्वारा जीवन में सफलता के लिए बहुत उच्च लक्ष्य, कठिन संघर्ष, संयम, साहस , धैर्य, लगन आदि की आवश्यकताओं का बोध कराया है।
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव का कहना था कि जो कविता तुकांत होकर भी छंदानुशासन में बंधकर नहीं चलती उसे, मुक्त छंद (free verse libre ) कहते हैं i आजकल अतुकांत कविताओं को लोग मुक्त छंद कहने लगे है जो सही नहीं है I अतुकांत कवितायें मुक्त छंद न होकर छंद मुक्त कवितायें हैं I इस दृष्टि से अजय कुमार श्रीवास्तव ’विकल‘ का गीत ‘कर्मपथ’ मुक्त छंदात्मक रचना है I कर्मपथ ऐसा विषय है जिस पर अनेक रचनायें हुयी है I इसलिए ऐसे विषय बहुधा चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं I
‘विकल’ जी का कर्मपथ अन्य समान्तर कविताओं के अनुरूप ही है और वैसी ही अत्युक्ति पूर्ण अभिव्यंजना भी है I मेनका के बाण में लक्षणा का प्रयोग है और पाठक नयनों के तीखेपन को सहजता से ग्रहण कर सकता है I मूर्ख मित्र से दाना दुश्मन अच्छा होता है I यह कथन और अधिक प्रांजल हो सकता था I कविता में क्ल्पना रूपी गहरे रंगों का प्रयोग हुआ है I हम जानते है की कविता में विशेषकर गीत में आयास का बड़ा महत्व है I गीत का जितना ही मार्जन होगा वह उतना ही निखरेगा I अंतत यह कहना समीचीन होगा कि ‘कर्मपथ’ गीत उस व्यक्ति की उन तमाम पारम्परिक और रूढ़िगत विशेषताओं को अभिव्यक्त करने में सफल रहा है, जो सही मायने में –‘इस धरा गर्भ से, रत्न ग्रहण कर पाया है I‘
श्री भूपेन्द्र सिंह ने कहा – ‘ मैंने इस कविता को कई बार पढ़ा I पढ़ने के बाद मेरी जो प्रतिक्रिया हुई वह इस प्रकार है I साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति यह बताती है कि जिसमें "सब का हित" समाहित हो वह साहित्य है I इस दृष्टिकोण से "कर्मपथ" सर्वथा सार्थक है क्योंकि यह एक संदेशात्मक सृजन है I इस रचना में एक कर्मवीर की प्रवृत्तियों का उल्लेख है I ऊँचे लक्ष्य बनाना, बाधाओं से विचलित न होना, प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रसन्न रहना तथा कर्म में आस्था रखना यही एक कर्मवीर के लक्षण और सफल होने के अनिवार्य अवयव हैं. यह संदेश देने में रचना पूर्णतः सफल हुई है I कविता का भाव-पक्ष सार्थक, स्पष्ट तथा सकारात्मक है I कविता में वर्तनी, चन्द्रबिन्दु तथा अनुस्वार की कुछ छोटी-मोटी समस्याएं है जो तनिक अवधान से सही की जा सकती है I
कवयित्री आभा खरे के अनुसार यह कविता कर्मपथ को आधार मानकर , मनुष्य को जीवन में आगे बढ़ने और एक सफल मुक़ाम हासिल करने हेतु चेतावनी भरा संदेश देती है । साथ ही , हौसलों , उम्मीदों का दामन थामें हुए ...हर बाधाओं , कठिनाइयों को पार करने हेतु , सकारात्मक सोच का आह्वान भी करने में रचना सफल हुई है।
ग़ज़ल के सुकुमार शायर आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के अनुसार अजय श्रीवास्तव 'विकल' की कविता 'कर्मपथ' एक प्रेरणादायक एवं भावपूर्ण रचना है । लक्ष्य यदि श्रेष्ठ हो तो प्रयास भी श्रेष्ठ होना चाहिए, यही इस कविता का सार है । कविता का अंतिम बंद अत्यंत सारगर्भित है "इतना भी यह सरल नहीं जो एक सफलता मिल जाए ...........नदी नीर को सागर जल से जिसने यहाँ मिलाया है" । जहाँ तक शिल्प की बात है, यह गीत हिंदी के ताटंक छंद से प्रारंभ किया गया है जिसमें 16,14 की मात्रा के साथ चरणांत में तीन गुरु होते हैंi पर इसका निर्वाह कविता में टूटता रहा है, जो थोड़े से आयास से सही हो सकता है I
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय का मानना था कि अनेक बाधाएं जीतकर, अनेक प्रलोभन त्याग कर जीव तय करता है अपने लक्ष्य तक पहुंचने का गतिपथ। रचनाकार ने एक लक्ष्य में सफलता प्राप्ति के पीछे उन नाना बाधाओं को उकेरा है जिनकी अवज्ञा करके कर्मयोगी अपने ध्येय को पाता है । प्रकृति में किसी भी पड़ाव को देखें, नदी का सागर मे मिलना, प्रस्तर तोड़ कर गतिपथ का सृजन अथवा सागर मंथन नाममात्र अमृत की प्राप्ति, हर सफल कर्म के पीछे कठिन तप की यातना रहती है। ‘विकल’ जी ने अपनी कविता में इसे भली पकार घित्रित किया है I
कवयित्री अर्चना प्रकाश के अनुसार कविता में परिश्रम व कठोर श्रम की कल्पना बेहद खूबसूरत है ।उपलब्धियों के लिए उपमान भी विशेष है । कविता में बहुत कुछ सीखने योग्य है ।
सुश्री कौशांबरी जी ने कहा कि अजय जी की कविता चूंकि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविता ‘कर्मवीर’ की याद दिला रही है I यथा-
देखकर बाधा विविध बहुबिघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं
अनेक विविधताओं से जूझ , पुरुषार्थ से जुड़ा व्यक्ति शत्रु बुद्धि से सीखता संयमपूर्वक अमृत रस प्राप्त करता है I धन्य पुरुष है वही कि जिसका नाम जगत में चलता है I
कवयित्री संध्या सिंह ने कहा कि कविता ‘कर्मपथ’ गीत के फॉरमेट में है और बहुत उत्साहवर्धक है l रचना तुकांत का समुचित निर्वाह करते हुए बहुत सफलता से अपने उद्देश्य में सफल होती है l इसमें एक पंक्ति है -" कठिन तपस्या करके भी जो नहीं किसी से हारा है " इसमें भी का प्रयोग सही नहीं लग रहा l भी’ होने से कठिन तपस्या एक नकारात्मक क्रिया का आभास दे रही है l मेरे विचार से यहाँ भी शब्द बदलाव माँगता है l दूसरी बात जलधार बहाया है में लिंग दोष है l जलधार बहायी होना चाहिए l गीत में गजमुक्ता से नाग मणि बहुत सुंदर प्रयोग है और मुग्ध करता है I मुझे गीत सकारात्मक चैतन्य बिखेरता हुआ प्रतीत हुआ l
संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ के अनुसार -मूर्ख मित्र से बढ़कर जिसने, शत्रु बुद्धि को माना है’ -बहुत सुंदर पँक्ति है । जलधार बहाया है के स्थान पर ‘जलधार बहाई है’ होना चाहिए जैसी अल्प जीव भी गलत प्रयोग है I मेरे विचार से काल स्वयं में बहुवचन है अतः कालों का प्रयोग उचित नही मेरे विचार से। गीत बहुत सुंदर है I
सुश्री कुंती मुकर्जी ने कहा कि यह सुंदर और सकारात्मक विचारों से भरपूर पठनीय एवं गेय रचना है I
डॉ. अशोक शर्मा के अनुसार यह कर्तव्य बोध की सुंदर रचना है I अधिक कुछ नहीं कहना है, पर मैं समझता हूँ कि कुछ और परिमार्जन हो सकता था I
अध्यक्ष डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने कहा कि अजय जी की कविता पर बहुत विद्वत्तापूर्ण प्रतिक्रियाएं आईं । उनकी इस रचना ने अपने 'सर माथे लगाने वाले' विषयवस्तु से प्रोत्साहित तो किया ही, मुझे मंत्रमुग्ध किया शब्द संतुलन से भी ।
अंत में लेखकीय वक्तव्य देते हुए अजय श्रीवास्तव ‘विकल’ ने समस्त विचारों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा कि गोपाल दादा के सार्थक मार्गदर्शन का भी मैं आभारी हूँ l सभी साहित्यिक मर्मज्ञों के विचार एवं सुझाव सार्थक है l मैंने इस विमर्श से बहुत कुछ सीखा है l प्रयास रहेगा कि आगे और अच्छा लिख सकूँ, माँ वाणी से यही प्रार्थना है l
(मौलिक/ अप्रकाशित )
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