ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह जुलाई 2017 – एक प्रतिवेदन - डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
बाल गंगाधर तिलक एवं चंद्रशेखर आजाद सरीखे महानुभावों के जयंती दिवस 23 जुलाई 2017 को ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य-संध्या संयोजक डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी के आवास 37, रोहतास एन्क्लेव में एक बार फिर गीत प्रसूनों और नीलोफर ग़ज़लों के सौरभ से राशि-राशि दीप्तिमान हुयी.
कार्यक्रम का सञ्चालन मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने भोजपुरी के कवि धर्म प्रकाश मिश्र रचित वाणी वंदना के सस्वर पाठ से की. इस वंदना का एक अंश इस प्रकार है –
पूत कहै या कपूत कहै तोहरे बेटवा गोहराये ज़माना
बा असरा तोहरे मतवा दुरियाव तू चाहे देखाउ ठेकाना
सावनी संगीत और कविता के रिमझिम के बीच दोहाकार केवल प्रसाद ‘सत्यम’ ने कुछ सुन्दर दोहे पढ़े और पावस के वातावरण को जीवंत कर दिया. उनका एक दोहा निदर्शन के रूप में प्रस्तुत है-
मेघ डाकिये आज कल लिए वृष्टि सन्देश
गाँव शहर से कह रहे पानी करो निवेश.
सावन का मार्दव मानो चहुँ ओर विलस रहा था पर देश की व्यवस्था की वर्तमान दशा पर डॉ0 सुभाष चन्द्र ‘गुरुदेव‘ का क्षोभ इस अभ्यागत सावन का स्वागत नहीं कर पाता और वे पूछ बैठते हैं कि-
देखकर सखी बता , सावन कुछ आया क्या ?
प्रकृति ने छटाओं का थाल कुछ सजाया क्या ?
कवयित्री भावना मौर्य रवायती ग़ज़लें बड़ी ख़ूबसूरती से कहती हैं. जीने के लिए जीवन में क्या कुछ नहीं करना पड़ता. इस सत्य को उन्होंने ‘छत कभी रोटी कभी कुछ जख्म सीने के लिए‘ जैसी ग़ज़ल की पंक्तियों से भली प्रकार प्रकट किया.
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह की भावपूर्ण ग़ज़ल और उनकी बातरन्नुम आवाज ने गोष्ठी को नयी ‘धज’ से नवाजा. ग़ज़लकार का आत्मविश्वास ग़ज़ल के मतले में सुनते ही बनता है.
बेरुखी मुमकिन है चाहत का नया आगाज हो
हो नहीं सकता मेरी उल्फत नजर अंदाज हो
डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी ने गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की मूल बांग्ला कविता ‘आवर्तन ‘ का स्वकृत हिन्दी काव्यानुवाद - पढ़कर सुनाया. एक अद्भुत रचना एक उन्नत भाव और उतनी ही ख़ूबसूरती से उस भाव का अनुवाद में प्रक्षेपण. निदर्शन निम्न प्रकार है -
धूप स्वयं ही जुड़ जाता है गंध से
गंध चाहता धूप से नहीं बिछुड़ना,
सुर स्वयं को खो देता है छंद में
छंद चाहता सुर के बीच मचलना.
इसके बाद डॉ0 शरदिंदु ने अपनी कविता ‘नया सूर्योदय’ का पाठ किया. यह कविता गीता दर्शन एवं वेदांत दर्शन से अनुप्राणित है. थका हुआ जीव अब कायाकल्प के लिए विह्वल है. वह कहता है कि उस पूर्ण विराम की ओर –
मेरी नज़र टिकी हुई है,
नए अध्याय के
पहले वाक्य के पहले शब्द पर,
जिसकी मूर्च्छना गूँज रही है
चराचर में.
पर, कुछ दिखाई नहीं देता
काल के पर्दे के पीछे से,
दिखाई नहीं देता इसीलिए,
उत्सुकता तीव्र से तीव्रतर होगी
नए सूरज के उदय होने तक.
संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ युवा कवि हैं. उनकी कविताओं में जवानी हमेशा झलकती है. आज भी ऐसा ही देखने-सुनने को मिला –
जवानी बदल देगी भारत का नक्शा , सभी गा उठेंगे जवानी जवानी
जवानी उठे तो ज़माना बदल दे , जवानी ही बनती युगों की कहानी
“सीता के जाने के बाद राम” की भाव दशा को उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत करने वाले शहर के ख्यातिलब्ध कथाकार डॉ0 अशोक शर्मा किसी ‘एक शाम’ को कुछ वायवीय बनाने की मनःस्थिति में दिखे हालांकि कुछ ऐसी ही शाम से वे उस समय भी गुजर रहे थे.
एक शाम गीतों-ग़ज़लों के नाम लिखी जाय
एक शाम सौन्दर्य-प्रेम के नाम लिखी जाय
आयें, कुछ रजनीगन्धा के फूल खिलाएं हम
एक शाम भीनी खुशबू के नाम लिखी जाय
कथाकार एवं कवयित्री कुंती मुकर्जी ने अपनी भावपूर्ण कविता ‘नैय्या पार‘ से अपनी वाग्विदग्धता का परिचय दिया. इस कविता की बानगी निम्नवत प्रस्तुत की जा रही है -
कंकड़ - कंकड़ चुनूं
रेत-रेत बिनूं
चट्टान-चट्टान सिर पटकूं
पिघली नहीं रीते-रीते
कवयित्री विभा चंद्रा ने अपने जीवन पर पड़े माँ के प्रभाव को शब्द देते हुए कहा-
माँ तूने याद दिलाया
तो मुझे याद आया
शहर और शहर के बाहर भी कवयित्री के रूप में दृढ़ता से स्थापित संध्या सिंह ने सावन में दोहों की वर्षा करते हुए कहा -
तन के हिस्से धीर है, मन बेचैन अधीर
तन नदिया का तीर है, मन नदिया का नीर
अंतिम कवि के रूप में डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने पहले एक ग़ज़ल पेश की. इसके कुछ शेर इस प्रकार हैं –
उसके निजाम पर मुझे हो किस तरह यकीं
है बांटता जहान में रहमत कहाँ कहाँ
दौलत हजार सिम्त बदौलत उसी के है
देखोगे उस हसीन की जीनत कहाँ कहाँ
ग़ज़ल के बाद डॉ0 श्रीवास्तव ने महाकवि कालिदास कृत ‘मेघदूतम्’ के पूर्व-मेघ खंड के श्लोक 19 व 20 का भावानुवाद ‘कुकुभ छंद’ में प्रस्तुत किया जिसकी बानगी इस प्रकार है -
जामुन के कुंजों में बहता नर्मद-जल प्यारा-प्यारा
वनराजि के तीखे मद से रस- भावित सुरभित धारा
बरसाकर सरिता में अपने अंतस का सारा पानी
करना फिर आचमन सुधा का हे मेरे बादल मानी
इसी के साथ काव्य का अव्याहत प्रवाह प्रशमित हुआ. संयोजक डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी के आतिथ्य ने सभी को आप्यायित किया. सावन बीतते ही भाद्रपद मास उदित होगा और भारत की धरती कृष्णमय हो जायेगी, तब फिर सजेगी एक और काव्य संध्या और बहेगी काव्य-धारा अविरल चंचल, निश्छल.
प्रेम पल्लवित कैसे होता ?
यदि उसमे मनुहार न होता
चैन कहाँ मानव पाता यदि
सपनो का संसार न होता ? ----------सद्यरचित
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