22 अप्रैल का दिन विश्व के अधिकांश देशों में पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है. अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेलसन ने सन् 1970 ई० में इसकी स्थापना पर्यावरण शिक्षा के रूप में की थी. इसका उद्देश्य धरती को प्रदूषण एवं भूमंडलीय परिवर्तन से होनेवाली क्षति से बचाना है. इस पवित्र संकल्प दिवस (22 अप्रैल, 2018) के दिन रविवार को ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर के संयोजक डॉ. शरदिंदु जी के आवास 37, रोहतास इन्क्लेव में ओ बी ओ के जुझारू रचनाकारों ने फिर से एक नयी साहित्य संध्या को अपने गीत व ग़ज़ल के प्रदीपों से ज्योतिर्मय कर दिया.
यह आयोजन प्रसिद्ध ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य‘ के सौजन्य से संपन्न हुआ. कार्यक्रम शुरू होने से पहले संयोजक ने चैप्टर के आयोजन में पहली बार आए युवा रचनाकार नूर आलम का विशेष रूप से स्वागत किया और सभी अतिथियों को याद दिलाया कि यह आयोजन ओबीओ लखनऊ चैप्टर के पाँचवे वर्ष का अंतिम आयोजन है. मई 2018 से चैप्टर अपने छठे वर्ष में पदार्पण करेगा. आज के इस गोष्ठी की अध्यक्षता भारतीय मिथकों को कथारूप देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डॉ० अशोक शर्मा ने की. आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘ को ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर के इतिहास में पहली बार संचालन का दायित्व सौंपा गया. उन्होंने संचालन की भूमिका जिस सहजता और प्रभावी ढंग से निभाई, उसके लिए उन्हें इस कार्यक्रम की खोज कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा.
काव्य–गोष्ठी का समारंभ सुश्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ की वाणी वंदना से हुआ. माँ शारदा के स्मरण के तुरंत बाद ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर की काव्य गोष्ठी में पहली बार प्रतिभाग कर रहे नवोदित एवं उर्जावान ग़ज़लकार नूर आलम को रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया. उनकी ग़ज़लों में व्यवस्था पर तंज प्रायः प्रकट होता रहता है. एक बानगी इस प्रकार है –
उन लफ्जों को मैंने दर किनार कर दिया
बंदगी करने पर जिसने इनकार कर दिया
खुद कमाकर लाया वह एक जून की रोटी
एक निवाले ने उसे समझदार कर दिया .
साहित्यमना भू-वैज्ञानिक डॉ. दीपक मेहरोत्रा ने अपने चेहरे के इम्प्रेशन से कविता के भावों को बड़ी सहजता से सम्प्रेषणीय बनाया. उनकी कविता का एकांश यहाँ प्रस्तुत है.
लोगों को दरारों में झाँकने की बुरी आदत है
भर चुके जख्म कुरेदने की बुरी आदत है
हास्य-व्यंग्य को सर्वथा एक नए अंदाज में प्रस्तुत करने वाले मृगांक श्रीवास्तव ने अपनी कविता में ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ की खासी पड़ताल की है. उनके निष्कर्ष यहाँ पर उद्धृत किये जा रहे हैं –
एक बेहद आजाद रिश्ता है
पुराने लोग इसे गलत कहते हैं
विवादास्पद है
पर न्यायालय से मान्यता प्राप्त है
कथाकार एवं कवयित्री कुंती मुकर्जी की कविताओं में उन्मुक्त प्रकृति के साथ सीधा संवाद सुनने को मिलता है और यही उनका साहित्यिक वैशिष्ट्य भी है. एक निदर्शन यहाँ प्रस्तुत है –
रात को मुझे नींद नहीं आती है
मैं खिड़की खोले देखती हूँ
एक झिलमिलाता आकाश
कवयित्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ की कविताओं में प्रेम और संवेदना की बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. उदाहरण निम्नवत है –
मत कसम दो मुझे अपनी
बिन तुम्हारे क्या है मेरा ?
मत भरो उर पीर से तुम
है वहाँ मेरा बसेरा
जिनकी बिम्ब योजना से किसी भी कवि को रश्क हो सकता है, ऐसी प्रतिभा की धनी संध्या सिंह ने लीक से हट कर कुछ दोहे सुनाये. इनके दोहों में जीवन के अनुभव का छायाभास विद्यमान है. यथा –
घड़ी समय की घूमकर ऐसा बदले हाल
तारा आँखों का कभी कभी नाक का बाल
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य‘ ने पहले कुछ शेर सुनाये, फिर उन्होंने एक ग़ज़ल तरन्नुम में पढ़ा. प्रेमाभिव्यक्ति में जब कभी खून, लाश, हत्या जैसी वीभत्सता आती है तो फारसी की मसनवी शैली मन में सरगोशी करने लगती है. ‘शून्य’ की निम्नांकित ग़ज़ल ऐसे ही अहसास को ज़िंदा करती है -
दिल में अहसासों की लाशों को लिए बैठा हूँ
मुन्तजिर हूँ कोई आये इन्हें ज़िंदा कर दे
संचालक आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ का आह्वान डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने किया. आहत की शायरी पर मशहूर शायर असरारुल हक ‘मजाज लखनवी’ की एक बात याद आती है. उनके बारे में मशहूर था कि वे जब शेर पढ़ते थे तो संगीत का जादू कुछ इस कद्र हावी हो जाता था कि उनके बाद कोई भी शायर अपना कलाम पढ़ना पसंद नहीं करता था. आहत लखनवी की आवाज में भी कुछ वैसा ही जादू है. उनके कुछ शेर इस प्रकार हैं –
उन्हें यकीं ही नहीं है हुजूर निकलेगा
गुरूर है तो यकीनन गुरूर निकलेगा
तुमने मुंह फेरा है तो मतलब समझ में आ गया
बेरुखी क्या चीज है सब समझ में आ गया
डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने भिन्न स्वाद की चार रचनाओं का पाठ किया. कभी वे रोशनी के माध्यम से गहरी अनुभूति व्यक्त करते हैं तो कहीं व्यवस्था की दयनीयता पर कटाक्ष करते हैं, यथा –
गुड़हल-मालती-कचनार को नहलाती हुई
घरों के चौखट से घुसपैठ करने लगी थी
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तब से मैं चौकन्ना रहता हूँ
सुबह की आहट सुनने के लिए
कहीं रोशनी दस्तक देकर
स्याह पर्दे के पीछे से लौट न जाये
कुछ देर का शोर
आँसुओं का कुहासा
मुआवजे का पासा
फिर वही दौड़ –
ज़िंदगी पस्त हो गयी है
ज़िंदगी ढूँढ़ते हुए
भगवान भी सन्नाटे में है.
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने ‘विश्वास’ शीर्षक पर आधारित एक गीत पढ़ा. इस गीत में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले निकम्मे लोगों पर गहरा व्यंग्य किया गया है –
मैं कहता था, यह सपने हैं, इनसे संसार नहीं चलता
केवल लफ्फाजी के बल पर भोजन भरपेट नहीं मिलता
जिस दिन यह सारी देह तोड़ फिर भी भूखे सोना होगा
झरना-कानन सब भूल तुम्हे निज कर्मों पर रोना होगा
मैं अपना सत्य सहेजूंगा, पर तुमको समझाऊँ कैसे
विश्वास तेरे मधुबैनों पर बोलो प्रिय मैं लाऊँ कैसे ?
अध्यक्ष डॉ० अशोक शर्मा की कविताओं में भाषा की सहजता के बीच सोच कहीं गहरे अवगुंठन में रहता है. डॉ शरदिंदु की कविताओं में भी वैसी ही गहरी अनुभूति मिलती है. दोनों की सोच आध्यात्मिक है, पर जहाँ शरदिंदु जी को पकड़ पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है वहीं डॉ. शर्मा की अभिधा राहत देती है. जैसे -
लो फिर गया पेड़ की ऊंची चोटी पर जा बैठा
उड़ता फिरता रहता है मन चिड़ियों जैसा
अध्यक्ष के काव्य पाठ के बाद गोष्ठी का औपचारिक समापन हुआ. दही की लस्सी और स्नैक्स के बीच छुटपुट वार्ता में सभी ने इसे एक सफल काव्य गोष्ठी कहा. इस प्रकार तो सभी गोष्ठियाँ सफल ही होती है. मैंने माँ का ध्यान किया तब यह विचार आया -
बंध जाता जब समा स्वत: सब तन्मय होते
तारी हो जाता शुरूर सुध- बुध सब खोते
नहीं समापन से पहले घर की सुधि आती
सफल गोष्ठी मेरी मति में वह कहलाती
[सद्य रचित , छंद उपमान (13,10 अंत ss)]
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