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विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी's Blog (64)

कुछ मुक्तक (भाग-5)

मात्रा विन्यास

1222 1222 1222 1222



लगे वो जल परी जैसी, अधर मधु हास बिखराती।

वो तरुणी वारुणी जैसी, नशा नस नस में महकाती।

लगे ज्यों दिव्य मूरत सी, रचा खुद ब्रह्म ने जिसको।

हुई मदहोश महफिल पर, तुरत ही ताजगी आती।



अलग है बात कुछ तुझमें, नहीं हर एक में मिलती।

भरी तू दोपहर जैसी, सुहानी शाम भी लगती।

निशा का मस्त आंचल तू, सुबह की ताजगी तुझमें।

स्वयं शृंगार कर उपमा, तुझे है आरती करती।



है कैसा हाल अब उनका, खबर कोई सुनाये तो।

तड़प मन… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 5, 2017 at 4:51pm — 4 Comments

कुछ मुक्तक (भाग-४)

सजी दुल्हन के जोड़े में, हंसी वो रूप की रानी।

सुनहरे रंग की बिंदिया, चमक माथे पे नूरानी।

हरी चूनर खिला चहरा, गुलाबी होंठ की लाली।

हजारों हुश्न देखे पर, नहीं उसका कोई सानी।



तुम्हारी सादगी देखी, तुम्हारा साज देखा है।

मगर हर रूप में जाना, जुदा अंदाज देखा है।

तुम्हारी सादगी चमके, कुमुदिनी फूल के जैसे।

तुम्हारे साज में हमने, सदा ऋतुराज देखा है।



खुली आंखें रहीं मेरी, अचानक देखकर उनको।

धरा पर ईश ने भेजा, रमा रति उर्वशी किसको।

अगर नख शिख… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 3, 2017 at 9:29am — 14 Comments

कुछ मुक्तक (भाग-३)

मात्रा विन्यास-

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२



अभी भी याद आती हैं, सुहानी शाम की बातें।

बड़े ही चाव से करना, बिना वो काम की बातें।

कहा तुमने बहुत हमसे, सुना हमने बहुत लेकिन।

अधूरी आज भी चुभती, बिना अंजाम की बातें।



घने बरगद तले अपना, भरी वो दोपहर मिलना।

पसीने से सने चेहरे, दुपट्टे से हवा करना।

किया वादा तो पूरी पर, अधूरी आस थी अब भी।

जुदाई की घड़ी आयी, हथेली खीझ कर मलना।



चले चर्चा कोई जब भी, तेरा ही नाम आता है।

भुलाता हूं तुझे लेकिन,… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 31, 2017 at 2:26pm — 4 Comments

कुछ मुक्तक (भाग-२)

मुहब्बत खूबसूरत है, इसे बदनाम मत करना।

देना दिल तबीयत से, कभी अहसान मत करना।

खुदा की ये नियामत है, नहीं हर एक को मिलती।

ये नेमत हाथ लग जाये, कभी इंकार मत करना।



मुहब्बत खेल मत समझो, खुदा की ये इबादत है।

यही इंसान की फितरत, यही शमसीर कुदरत है।

मुहब्बत का परिंदा है यहां, हर शख्स हर जर्रा।

दिलों में क्यों भरा नफरत, जहां में क्यों अदावत है।



बुरा वो मान लें शायद, करूं इजहार यदि उनसे।

गिरा दें मुझको नजरों से, जता दूं प्यार यदि उनसे।

अगर वो… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 18, 2017 at 7:44pm — 3 Comments

कुछ मुक्तक

हमारे पीछे तुम आयीं, तुम्हारे पीछे हम भागे।

न बोलूं मैं तेरे आगे, न बोलो तुम मेरे आगे।

जुबां खामोश है लेकिन, निगाहें बोल देती हैं।

हम भी रात भर रोये, तुम भी रात भर जागे।



हम भी मुस्कुराते हैं, तुम भी मुस्कुराते हो।

सबसे हम बताते हैं, सबसे तुम बताते हो।

लगा ये रोग कैसा है, हमारे दिल को ऐ जाना।

तुमसे हम छुपाते हैं, हमसे तुम छुपाते हो।



तुम्हारी भावनाओं को, समझता हूं मगर चुप हूं।

सदा खामोश लब की मैं, सुनता हूं मगर चुप हूं।

इशारों ही… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 22, 2017 at 11:29am — 2 Comments

माता - पिता ( रोला गीत )

पिता धरा की शक्ति, धारणा के वाहक हैं।

माता धरा समान, सृष्टि की संचालक हैं।

दिया आपने जन्म, न उतरे ऋण की थाती।

मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।

पिता धरातल ठोस, और मां ममता धारा।

पिता स्वयं वट वृक्ष, छांव मां ने पैसारा।

हम सब फल रसदार, मिष्‍ठता उनसे आती।

मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2017 at 3:08pm — 8 Comments

सिन्धु सी नयनों वाली (रोला गीत) भाग-२

लिपट चंद्रिका चंद्र, करें वे प्रणय परस्पर।

निरखें उन्हें चकोर, भाग्य को कोसें सत्वर।।

हाय रूप सुकुमार, कंचु अरुणाभा वाली।

स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥



व्याकुल हुए चकोर, मेघ चंदा को ढक ले।

रसधर सुन्दर अधर, हृदय कहता है छू ले।।

सीमा अपनी जान, लगे सब रीता खाली।

स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥



रहे उनीदे नैन, सजग अब निरखे उनको।

देख देख हरषाय, तृप्त करते निज मन को।।

हुए अधूरे आप, नहीं वह मिलने वाली।

स्वर्ग परी…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on November 28, 2016 at 10:30pm — 8 Comments

संसद की गरिमा घटी (कुंडलिया छंद)

चुन गुण्डे संसद गये, करते हैं उत्पात।

लोकतंत्र के माथ पर, यह कलंक की बात॥

यह कलंक की बात, लात घूँसा चलता है।

मिर्च पाउडर फेंक, नोंच माइक देता है॥

देना हमें जवाब, आज गुण्डों को सुन।

भेजें सज्जन लोग, देश हित में हम चुन॥



भारत के इतिहास में, है काला अध्याय।

संसद में फेंका गया, जूता चप्पल हाय॥

जूता चप्पल हाय, नहीं क्यों उनको मारे।

चुनकर नमक हराम, गये संसद जो सारे॥

करते हैं खिलवाड़, तनिक न आये लज्जत।

पापी पामर नीच, कलंकित करता… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 15, 2014 at 12:56pm — 7 Comments

दुख और जीवन (सवैया गीत)

इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।

फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥

मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।

बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥



यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।

पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥

हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।

पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥



मन की हठता सुन है तब ही, जब… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 7, 2014 at 7:52pm — 13 Comments

गणतंत्र दिवस (कुंडलिया छंद)

गणतंत्र दिवस शुभकामना, प्रेषित है श्रीमान।
झंडा ऊँचा नित रहे, बढ़े देश का मान॥
बढ़े देश का मान, निरंतर उन्नत भारत।
हर जन हो खुशहाल, नहीं हो कोई आरत॥
आम व्यक्ति गणराज, किन्तु तंत्र में है विवश।
फिर कैसा गणतंत्र, और ये गणतंत्र दिवस॥

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 26, 2014 at 2:48pm — 8 Comments

चिंता के कुछ दोहे

नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥
मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥

पश्चिम संस्कृति जी रहे, हम भूले निज मान।
कहते हम संतान कपि, जबकि हैं हनुमान॥

निज गौरव को भूलकर, बनते मार्डन लोग।
ये भी क्या मार्डन हुए, पाल रहे बस रोग॥

अपने घर में त्यक्त है, वैदिक ज्ञान महान।
महा मूढ़ मतिमंद हम, करते अन्य बखान॥

लौटें अपने मूल को, जो है सबका मूल।
पोषित होता विश्व है, सार बात मत भूल॥

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 22, 2014 at 12:30pm — 16 Comments

बिटिया के जन्म पर ( घनाक्षरी छंद)

5 जनवरी 2014 को रात्रि 8.45 बजे मेरी बिटिया ने जन्म लिया। मैं उसे माँ दुर्गा का प्रसाद मानता हूँ। पिता बनने का सुख ही कुछ दिव्यानुभूतिकारी होता है। गदगद् भाव से मैं अपनी पुत्री को माँ दुर्गा का स्वरूप मान कर एक घनाक्षरी छंद प्रस्तुत कर रहा हूँ-

*****************************

सुता रूप धार मात, गेह जो पधारी आप,

चरण युगल माथ, कोटिश: नवाता हूँ।

आह्लादकारी जन्म, किलकारी रही गूँज,

मुग्धकारी महतारी, आप गुन गाता हूँ॥

जैसे लिया जन्म मात, किया उपकार बहु,

वैसे जियो शत… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 19, 2014 at 12:00pm — 22 Comments

कितने कर्ण?

जाने कितने कर्ण जन्मते यहाँ गली फुटपाथों पर। 

या गंदी बस्ती के भीतर या कुन्ती के जज्बातों पर॥

कुन्ती इन्हें नहीं अपनाती न ही राधा मिलती है।

इसीलिये इनके मन में विद्रोह अग्नि जलती है॥

द्रोण गुरु से डांट मिली और परशुराम का श्राप मिला। 

जाति- पांति और भेदभाव का जीवन में है सूर्य खिला॥

सभ्य समाज में कर्ण यहाँ जब- जब ठुकराये जाते हैं।

दुर्योधन के गले सहर्ष तब- तब ये लगाये जाते हैं।

इनके भीतर का सूर्य किन्तु इन्हें व्यथित करता रहता।

भीतर ही भीतर इनकी…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 29, 2013 at 11:00am — 8 Comments

यदि मैं भी रावण बन जाऊँ

यदि मैं भी रावण बन जाऊँ।

इन्द्रिय लोलुप इन्द्र विरुद्ध मैं, इन्द्रजीत सुत जाऊँ।

धरे लूट धन धन कुबेर जो, उसको अभी छुड़ाऊँ॥

भंग करे जो भगिनि अस्मिता, अंग भंग करवाऊँ।

घर के भेदी को तत्क्षण मैं, घर से दूर भगाऊँ॥

आँख उठाये देश तरफ वो, सिर धड़ से अलग कराऊँ।

बैरी बनकर ईश भी आयें, उनसे बैर उठाऊँ॥

नहीं देश में घुसने दूँ मैं, दसों शीश कटवाऊँ।

कर विकास निज मातृभूमि का, लंका स्वर्ण बनाऊँ॥

वैज्ञानिक तकनीकि उन्नति, स्वर्ग धरा पर लाऊँ।

शनि सम क्रूर जनों को अपने,… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 24, 2013 at 8:10am — 9 Comments

ठगे गये हम लोग (रोला गीत)

बनते संत महान, काम घटिया ही करते।

खोले धर्म दुकान, कर्म बनिया के करते॥

उनसे लेकर मंत्र, हृदय विह्वल हो रोया।

ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥



छोड़ो माया मोह, नित्य हमको समझाया।

कब्जाकर पर भूमि, आश्रम निज बनवाया।

शैम्पू साबून तेल, बेंचते संत वणिक या।

ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥



चमत्कार बहु भांति, भांति अनुभव करवाते।

भूले सारा ज्ञान, जेल अपवित्र बताते॥

परम संत क्या जेल, पलंग जंगल हो या?

ठगे गये हम लोग, देख अपनापन… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 15, 2013 at 6:41pm — 2 Comments

सिन्धु सी नयनों वाली (रोला गीत)

तेरे सुन्दर नैन, नैन में सागर तैरे।

उसमें डूबा चांद, चांद को दुनिया हेरे॥

मिला नहीं जब चांद, तुझे उपमा दे डाली।

स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥



तेरे काले केश, अमावस जैसे लगते।

भटक गये सुकुमार, अलक में उलझे रहते॥

चांद अमावस साथ, अरे अद्भुत है आली।

स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥



वीणा की झंकार, मधुर श्रवणों में घोले।

अरुण ओष्ठ पुट खोल, बैन जब- जब तू बोले॥

नहीं सुनूँ झंकार, लगे सब सूना खाली।

स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 15, 2013 at 3:15pm — 14 Comments

कर्तव्य बोध (लघुकथा)

खट- खट की आवाज सुनकर गली के कुत्ते भौंकने लगे। चोर कुछ देर शांत हो गये। थोड़ी देर बाद फिर से खोदने लगे। कुत्ते फिर भौंकने लगे।

चोरों ने डंडा मारकर कुत्तों को भगाना चाहा, लेकिन कुत्ते निकले निरा ढीठ, वे और तेज भौंकने लगे। लाल मोहन ही क्या अब तो सारा मुहल्ला जाग चुका था । लेकिन किसी ने अपने बिस्तर से उठकर बाहर यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि कुत्ते भौंक क्यों रहे थे ।

सुबह-सुबह पूरे मुहल्ले में यह ख़बर आग बनी थी, लाल मोहन लुट चुका है।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2013 at 8:00am — 20 Comments

आओ लोकतंत्र- लोकतंत्र खेलें (लघुकथा)

अचानक मेरे पांव ठिठक गये। कुछ बच्चे कह रहे थे, आओ लोकतंत्र लोकतंत्र खेलें। मैंने सोंचा- कई खेल सुना है, खेला भी है, मसलन- गिल्ली-डंडा, छुपा- छुपी, कबड्डी, खो- खो आदि। ये नया खेल कौन सा है- लोकतंत्र- लोकतंत्र? मैंने देखा- एक बच्चा जमीन पे लेटा हुआ है, दूसरा बच्चा उसके पास बैठा है। वह रोते हुए कह रहा है- माई- बाप सहाय लागो, मेरा बच्चा भूख से मर रहा है। मैं भी भूख से व्याकुल हूँ। आज मुझे कोई काम नहीं मिला। सहाय लागो माई- बाप सहाय लागो।

एक बच्चा आता है और उसके आगे 24 रूपये फेंक कर कहता है- ले… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 8, 2013 at 8:00pm — 17 Comments

भूख का बीमा (लघुकथा)

रहीम - यार! अपन लोग की लाइफ का कोई गेरन्टी नहीं।
राम - ये सेठ लोग अक्खी दुनिया के हिस्से की गेरन्टी खुद ही ले लेना चाहता है।
-हाँ यार! देख कल अपने सेठ की गाड़ी क्या ठुकी कि बीमा का केस दायर कर दिया। अब साल्ला 4-5 लाख तो मिल ही जायेगा उसको।
-लेकिन तुझे मालूम है? कल अपन के मोहल्ले में अश्फाक मोची का इकलौता लड़का, बेचारा भूख से तड़प कर मर गया।
-काश अपन लोग के भूख भी का बीमा होता यार, तो भूख लगने या मरने पर कुछ तो मिल जाता!

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 7, 2013 at 1:33pm — 31 Comments

शाश्वत प्रेम (कुंडलिया छंद)

1-

शाश्वत प्रेम सदैव है, सृष्टि आदि अनुमन्य।

यह ईश्वर का अंग है, करके सब हों धन्य॥

करके सब हो धन्य, जगत का सार यही है।

वश में होते ईश, प्रेम का काट नहीं है॥

कबिरा मीरा सूर, शशी आदिक इसमें रत।

नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥



2-

बहती गंगा प्रेम यह, बांध सका नहिं कोय।

अन्हवाये तन प्रेम में, हर मन निर्मल होय॥

हर मन निर्मल होय, कलुष अंतर का मिटता।

नहीं वासना युक्त, प्रेम वश ईश्वर मिलता॥

निकल अचल हिमवान, सिन्धु चंचल में… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 22, 2013 at 8:00pm — 22 Comments

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