क़दमों में दे बहकी थिरकन
महकी नम सी चंचल सिहरन
बाँहों भर ले, रच कर साजिश
क्या सखि साजन? न सखि बारिश
हर पल उसने साथ निभाया
संग चले बन कर हम साया
रंग रसिक नें उमर लजाई
क्या सखि साजन? न सखि डाई
चाहे मीठे चाहे खारे
राज़ पता हैं उसको सारे
खोल न डाले राज़, हाय री !
क्या सखि साजन? न सखि डायरी
उसने सारे बंध…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 21, 2014 at 6:00pm — 44 Comments
दायरा...
सोच का,
मन की उड़ान के
परिचित आसमान का,
अंतर्भावनाओं के विस्तार का,
अनुभूतियों के सुदूर क्षितिज का,
समयानुरूप
स्वतः विस्तारित हो, तो कैसे ?
तन मन बुद्धि अहंकार की
लोचदार चारदीवारी मैं कैद...
संकुचन के बल-प्रतिबल
से संघर्षरत,
होता क्लिष्ट से क्लिष्टतर
जटिल से दुर्भेद फिर अभेद
कर्कश कट्टर असह्य
आखिर
कौन सचेत, पहचानता है…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 11, 2014 at 1:00pm — 15 Comments
अनकही बातें धड़कतीं
मुस्कुराती
पल रही हैं.
थाम यादों की उँगलियाँ
स्वप्न जो
गुपचुप सजाये
शब्द आँखों में उफनते
क्या हुआ जो
खुल न पाये
भाव लहरें
तलहटी में
व्यक्त हो अविरल बही हैं.
रच गए जब
स्वप्न पट पर
नेह गाथा चित चितेरे
रंग फागुन से चुरा कर
कल्पनाओं में बिखेरे...
श्वास में
घुल कर बहीं जो
वो हवाएँ निस्पृही…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 4, 2014 at 9:30am — 23 Comments
विश्व विख्यात शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो० सुब्रह्मण्यम को रिटायरमेंट के बाद एकाकी जीवन जीते 15 साल हो चले थे. अनेक एवार्ड, शोध पत्र, सम्मान-पत्र, पुस्तकें यही कुछ उनकी जीवन भर की पूंजी थी. जब भी कोई शोध संस्थान किसी व्याख्यान के लिए आग्रह करता तो बहुत उत्साह से वैज्ञानिकों को दिशा निर्देशन देने के लिए अवश्य ही जाते थे.
ऐसे ही एक व्याख्यान में देश के कोने-कोने से आये चुनिन्दा युवा शोधार्थियों को संबोधित करते हुए व्याख्यान के बीच में अचानक एक दुर्लभ सी पुस्तक के बारे में…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 1, 2014 at 12:00am — 18 Comments
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