प्रियतम कैसा यह विरह, तन्हाँ मैं निश-प्रात ,
मधुरिम-मधुरिम वेदना, पिया प्रेम सौगात //१//
अथक चला अब सिलसिला, मन ही मन संवाद ,
कसमें वादे नित गुनूँ, उर झूमे आह्लाद //२//
जुल्फों के छल्ले बना, खेले मन बेचैन,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 8:00pm — 36 Comments
अनाद्यानंत आकाश में तैरते
Added by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 12:00pm — 30 Comments
प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments
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