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Nilesh Shevgaonkar's Blog – March 2015 Archive (5)

ग़ज़ल -नूर -मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए

22 12 12 11 22 12 12

मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए,

ता-हश्र हम जो कब्र के मेहमान हो गए.

.


जब से कमाई बंद हुई सब बदल गया

अपनों पे बोझ हो गए सामान हो गए.

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मेरे ये हर्फ़ बन न सके गीत और ग़ज़ल

उनके तो वेद हो गए कुर’आन हो गए.

.

उसने बना के…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 1:50pm — 28 Comments

ग़ज़ल -नूर -मेरे यार तराज़ू निकले.

22/22/22/22 (सभी संभव कॉम्बीनेशंस)



यादो के जब पहलू निकले

जंगल जंगल आहू निकले.     आहू-हिरण

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काजल रात घटाएँ गेसू

उसके काले जादू निकले.

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जज़्बातों को रोक रखा था

देख तुझे, बे-काबू निकले.

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चाँद मेरी पलकों से फिसला   

आँखों से जब आँसू निकले.

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तेरे ग़म में जब भी डूबा, 

मयखानों के टापू निकले. 

.

भीग गया धरती का आँचल  

अब मिट्टी से ख़ुशबू…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 29, 2015 at 8:30am — 22 Comments

ग़ज़ल -नूर 'मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ'

१२२२/१२२२/१२२ 



किसी की आँख का क़तरा नहीं हूँ

ग़ज़ल में हूँ मगर मिसरा नहीं हूँ.

.

न जाने क्या करूँगा ज़िन्दगी भर  

तेरे सदमे से मैं उबरा नहीं हूँ.

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अना से आपकी टकरा गया था

मैं टूटा हूँ मगर बिखरा नहीं हूँ.

.

खुदाया हश्र पर नरमी दिखाना

मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ.

.

सफ़र में हूँ, कोई सूरज हो जैसे

कहीं भी एक पल ठहरा नहीं हूँ.

.

तराशेगी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 28, 2015 at 10:08am — 12 Comments

ग़ज़ल -नूर



कहते हैं इल्ज़ाम छुपाकर रक्खा है

मैंने तेरा नाम छुपाकर रक्खा है.

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झाँक के देखो मेरी इन आँखों में तुम

अनबूझा पैग़ाम छुपाकर रक्खा है.

.

शायद वो हो मुझ से भी ज़्यादा प्यासा

उसकी ख़ातिर जाम छुपाकर रक्खा है.

.

जिसको तुम सब कहते हो ईमाँ वाला,

उसने अपना दाम छुपाकर रक्खा है.

.  

आया है वो आज जुबां पर गुड लेकर

शायद कोई काम छुपाकर रक्खा है.

.

मस्जिद की…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2015 at 11:21pm — 24 Comments

ग़ज़ल-निलेश "नूर"

२१२२/ २१२२/ २१२२/२१२२ 



हादसा टूटा जो मुझ पे हादसा वो कम नहीं है

ग़म ज़माने का मुझे है इक तेरा ही ग़म नहीं है.  

.

या ख़ुदा! तेरे जहाँ का राज़ मैं भी जानता हूँ,

हैं ख़ुदा हर मोड़ पर लेकिन कहीं आदम नहीं है.

.

तेरे वादे की क़सम मर जाएँ हम वादे पे तेरे,

क्या करें वादे पे तेरे तू ही ख़ुद क़ायम नहीं है. 

.

ज़ख्म वो तलवार का हो वार हो चाहे जुबां का

वक़्त से बढकर जहाँ में कोई भी मरहम…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2015 at 8:00am — 24 Comments

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय."
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Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक 143 in the group चित्र से काव्य तक
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