जो शेख़ ओ बरहमन में यारी रहेगी
जलन जलने वालों की जारी रहेगी.
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मियाँ जी क़वाफ़ी को समझे हैं नौकर
अना का नशा है ख़ुमारी रहेगी.
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गले में बड़ी कोई हड्डी फँसी है
अभी आपको बे-क़रारी रहेगी.
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हुज़ूर आप बंदर से नाचा करेंगे
अकड आपकी गर मदारी रहेगी.
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हमारे ये तेवर हमारे रहेंगे
हमारी अदा बस हमारी रहेगी.
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हुज़ूर इल्तिजा है न हम से उलझिये
वगर्ना यूँ ही दिल-फ़िगारी रहेगी.
.
ग़ज़ल “नूर” तुम पर न ज़ाया करेंगे
करेंगे तो वो तुम से भारी रहेगी.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
बंधुवर, नीलेश नूर साहब , मेरी टीप पर आपका जवाब, अभी पढ़ा। मुझे सन् 1970 मे प्रसिद्ध पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा गजल पर छपा एक आलेख स्मरण हो आया। आलेख के शुरु में ही एक शेर था, कदाचित लेखक ( कवि शायर गोविन्द व्यास) की ही था,
"ग़जल के मन्दिर में दीवाना मूरत रखकर चा गया,
कौन इसे पहले पूजेगा होड़ लगी देवताओं मे।"
कहने की आवश्यकता नही, उक्त शेर गज़ल का स्वरूप, स्पष्ट रूप से तय कर जाता हे। मैं उस समय बालक था, गजल की उक्त प्रकृति, उसका बिम्ब और स्वरुप स्थायी रूप से मानस पटल अंकित हो गये। और, आज तक एक अच्छी ग़जल मेरे लिए श्रेष्ठतम काव्य है, आप उसे दिव्य कह सकते है। ग़जल हो अथवा श्रेष्ठ काव्य, देवी सरस्वती कहिए य़ा कि प्राचीन यूनानी ग्रन्थोंबंधुवर, नीलेश नूर साहब , मेरी टीप पर आपका जवाब, अभी पढ़ा। मुझे सन् 1970 मे प्रसिद्ध पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा गजल पर छपा एक आलेख स्मरण हो आया। आलेख
के शुरु में ही एक शेर था, कदाचित लेखक ( कवि शायर गोविन्द व्यास) की ही था,
ग़जल के मन्दिर में दीवाना मूरत रखकर चा गया,
कौन इसे पहले पूजेगा होड़ लगी देवताओं मे।
कहने की आवश्यकता नही, उक्त शेर गज़ल का स्वरूप, स्पष्ट रूप से तय कर जाता हे। मैं उस समय बालक था, गजल की उक्त प्रकृति, उसका बिम्ब और स्वरुप स्थायी रूप से मानस पटल अंकित हो गये। और, आज तक एक अच्छी ग़जल मेरे लिए श्रेष्ठतम काव्य है, आप उसे दिव्य कह सकते है। ग़जल हो अथवा श्रेष्ठ काव्य, देवी सरस्वती कहिए य़ा कि प्राचीन यूनानी बंधुवर, नीलेश नूर साहब , मेरी टीप पर आपका जवाब, अभी पढ़ा। मुझे सन् 1970 मे प्रसिद्ध पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा गजल पर छपा एक आलेख स्मरण हो आया। आलेख
के शुरु में ही एक शेर था, कदाचित लेखक ( कवि शायर गोविन्द व्यास) की ही था,
ग़जल के मन्दिर में दीवाना मूरत रखकर चा गया,
कौन इसे पहले पूजेगा होड़ लगी देवताओं मे।
कहने की आवश्यकता नही, उक्त शेर गज़ल का स्वरूप, स्पष्ट रूप से तय कर जाता हे। मैं उस समय बालक था, गजल की उक्त प्रकृति, उसका बिम्ब और स्वरुप सभ स्थायी रूप से मानस पटल अंकित हो गये। और, आज तक एक अच्छी ग़जल मेरे लिए श्रेष्ठतम काव्य है, आप उसे
दिव्य कह सकते है। ग़जल हो अथवा श्रेष्ठ काव्य, देवी सरस्वती कहिए य़ा कि प्राचीन यूनानी
ग्रन्थों नव रसों के सापेक्ष काव्य की नौ देवियाँ, आशीष है, जिसे शायर अथवा कवि ईश कृपा से
उसकी प्रेरणा से वरदान स्वरूप प्राप्त करता है।
तंजोमिज़ाज की शायरी न तो अच्छे दर्जे की समझी जाती है, और न कभी समझी गयी। मेरा संकेत आप, मान्यवर, समझ रहे होंगे। वैसे, क्षमा करे, सतही व्यवहारों पर नौंक- झौक और
दरबार की पनाह में दण्ड देने की अपेक्षा ही उस्ताद शायर जौक़ साहब को मामूली आदमी बना
देती है। और, स्वार्थपरता के लिए सीमाएं लाँघने की वज़ह उस्ताद शायर ग़ालिब भी मेरे आदर्श नहीं हैं। उस्ताद शायर मीर तक़ी मीर मुझे बेहतर लगते हैं। गंगा जमुनी तहज़ीब का निबाह मुझे फिराक़ साहब में बेहतर दिखाई देता है। सधन्यवाद,
ग्रन्थों नव रसों के सापेक्ष काव्य की नौ देवियाँ, आशीष है, जिसे शायर अथवा कवि ईश कृपा से
उसकी प्रेरणा से वरदान स्वरूप प्राप्त करता है।
तंजोमिज़ाज की शायरी न तो अच्छे दर्जे की समझी जाती है, और न कभी समझी गयी। मेरा संकेत आप, मान्यवर, समझ रहे होंगे। वैसे, क्षमा करे, सतही व्यवहारों पर नौंक- झौक और
दरबार की पनाह में दण्ड देने की अपेक्षा ही उस्ताद शायर जौक़ साहब को मामूली आदमी बना
देती है। और, स्वार्थपरता के लिए सीमाएं लाँघने की वज़ह उस्ताद शायर ग़ालिब भी मेरे आदर्श नहीं हैं। उस्ताद शायर मीर तक़ी मीर मुझे बेहतर लगते हैं। गंगा जमुनी तहज़ीब का निबाह मुझे फिराक़ साहब में बेहतर दिखाई देता है। सधन्यवाद,
नव रसों के सापेक्ष काव्य की नौ देवियाँ, आशीष है, जिसे शायर अथवा कवि ईश कृपा से उसकी प्रेरणा से वरदान स्वरूप प्राप्त करता है।
तंजोमिज़ाज की शायरी न तो अच्छे दर्जे की समझी जाती है, और न कभी समझी गयी। मेरा संकेत आप, मान्यवर, समझ रहे होंगे। वैसे, क्षमा करे, सतही व्यवहारों पर नौंक- झौक और दरबार की पनाह में दण्ड देने की अपेक्षा ही उस्ताद शायर जौक़ साहब को मामूली आदमी बना देती है। और, स्वार्थपरता के लिए सीमाएं लाँघने की वज़ह उस्ताद शायर ग़ालिब भी मेरे आदर्श नहीं हैं। उस्ताद शायर मीर तक़ी मीर मुझे बेहतर लगते हैं। गंगा जमुनी तहज़ीब का निबाह मुझे फिराक़ साहब में बेहतर दिखाई देता है। सधन्यवाद,
जनाब निलेश 'नूर' जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by सालिक गणवीर 1 second agoDelete Comment
भाई निलेश ' नूर' जी
सादर अभिवादन
भाई क्या ग़ज़ल कही आपने,वाह। एक एक लफ्ज़ और हर एक अशआर के लिए तह -ए -दिल से दाद और मुबारक़बाद क़ुबूल करें।
आ. चेतन प्रकाश जी,
आप वरिष्ठ हैं और मैं आपके जैसे वरिष्ठ सदस्य के भी ग़ज़ल के मर्म को समझने में सहायक हुआ यह मेरे लिए विशेष योग्यता मिलने के समान है..
पता नहीं आप किस तरफ इशारा करना चाहते हैं लेकिन जिसे आप नफ़रत निरुपित कर रहे हैं वह दरअसल शाइर का फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन है जिस में वो बिना एक भी ग़लत लफ्ज़ कहे, बिना हिंसा किये कई बदज़ुबानों की ज़ुबान खेंच लेता है.. कई कथितों के साहित्यिक विषदंत तोड़ कर आत्मिक विष को उसी के कंठ में धारण करवा देता है... ग़ज़ल कनस्तर में कंकर होने का मर्म तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन ग़ज़ल के शंकर हलाहल पीने की जगह कथित उस्तादों को पिला कर ही पूर्णता को प्राप्त होते हैं.
ग़ालिब का मशहूर वाक़या तो सुने ही होंगे जब सडक से गुज़रते उस्ताद ज़ौक को उन्होंने कह दिया था कि-
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता .... जिसकी शिकायत दरबार में किये जाने पर उन्होंने तुरंत फिल्बदी ग़ज़ल कही जो बाद में ग़ालिब का ट्रेड मार्क बन गयी--हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है... यू ट्यूब पर सीरियल की लिंक उपलब्ध है.. अवलोकनार्थ भेज रहा हूँ ..
.
https://www.youtube.com/watch?v=HNH0dN_k_wk
इसके साथ ही राहत इन्दौरी जी का मशहूर दतिया मुशायरा भी सुनने लायक है जो यू ट्यूब पर उपलब्ध है.. बड़े मज़े का है.. देखिएगा ज़रूर..
रही बात अना के बे-तरह प्रदर्शन की ..तो अभिमान और स्वाभिमान में महीन सा धागे जितना फ़र्क होता है..
अब किसी के गले में कुछ फँस जाए जो उस बेचारे से न निगलते बनें, न उगलते बनें.. किसी के आपसी प्रेम से , परस्पर सम्मान से कुढ कर किसी के मिसरे निकलना बन्द हो जाएं .. बह्र कह्र ढाने लगे.. क़ाफिये पनाह माँगने लगें.तुकबन्तोदी..ग़ज़ल के लेबल से बेची जाने लगे तो ऐसे जातक की पीढ़ा को शब्द देना भी साहित्यिक कर्तव्य है, जिसे यदि मैं न करता तो शायद कामचोरी करता..
आशा है आप नफ़रत का बीज मन में रखने वालों को भी टिप्पणी से समुचित फटकार लगाएंगे ...
सादर व् सप्रेम
भाई, नीलेश बहदुर 'नूर' साहब, ज़िन्दगी के सड़सठ वर्ष बिताने के बाद आज जाकर,( आपकी ग़ज़ल पढ़कर ), कहीं ग़जल का मर्म समझ आया । मालूम हुआ, अपनी पुरखुलूस अंदाज़े बयाँ के लिए मशहूर उर्दू- हिन्दवी जबान में, किस तरह नफरत पिरोयी जाती है। और, अना का बेतरह प्रदर्शन किया जाता है, ग़जल फार्मेट के तो आप निसंदेह बादशाह है। वैसे आपके ज्ञानार्जन के लिए बता दूँ, ग़जल कनस्तर में कंकर नहीं होती।
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