तमन्नाओं को फिर रोका गया है
बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.
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किसी का खेल है सदियों पुराना
किसी के वास्ते मंज़र नया है.
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यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले
ये दरिया बहते बहते थक चुका है.
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यही हासिल हुआ है इक सफ़र से
हमारे पाँव में जो आबला है.
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कभी लगता है अपना बाप मुझ को
ये दिल इतना ज़ियादा टोकता है.
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नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में
अगरचे खून अब भी खौलता है.
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हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए
वहाँ बस तीरगी का सिलसिला है.
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बहुत सी लडकियाँ मरती हैं उस पर
वो लड़का, हाँ वही जो साँवला है.
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ग़ज़ल में “नूर”! वो सब तू सुना दे
तेरे जीवन में जो कुछ अनकहा है.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ. आरज़ू जी
आदरणीय नीलेश नूर जी आदाब, बहुत शानदार ग़ज़ल की दिली मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएँ, आदरणीय चेतना प्रसाद जी की प्रतिक्रिया से सहमत
धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी
धन्यवाद आ. सालिक जी
धन्यवाद आ. बृजेश जी
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गज हुई है । हार्दिक बधाई।
भाई Nilesh Shevgaonkar जी
सादर प्रणाम
बहुत दिनों बाद पटल पर आपकी ग़ज़ल पढ़ कर मज़ा आ गया। आपकी शैली मुझे बहुत भाती है. ग़ज़ल पर गुणीजनों की टिप्पणियाँ पढ़ते हुए ही नई जानकारियां भी मिल गई। सलामत रहें।
एक अलग ही अंदाज की ग़ज़ल पढ़ने को मिली आदरणीय नीलेश जी..और उसपे हुई चर्चा बड़ी महत्वपूर्ण है।
धन्यवाद आ. सुरेन्द्रनाथ भाई
आद0 नीलेश भाई जी सादर अभिवादन
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। पढ़कर हम जैसे सीखने वालों को बहुत कुछ मिला। आपको बहुत बहुत बधाई
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