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एक गीत- अमराई कर दो... संजीव 'सलिल'

एक गीत-
अमराई कर दो...
संजीव 'सलिल'
*
कागा की बोली सुनने को
तुम कान लगाकर मत बैठो.
कोयल की बोली में कूको,
इस घर को  अमराई कर दो...
*
तुमसे मकान घर लगता है,
तुम बिन न कहीं कुछ फबता है..
राखी, होली या दीवाली
हर पर्व तुम्हीं से सजता है..
वंदना आरती स्तुति तुम
अल्पना चौक बंदनवारा.
सब त्रुटियों-कमियों की पल में
मुस्काकर भरपाई कर दो...
*
तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..
रह भेदभाव से दूर सदा-
निस्वार्थ भावमय समता हो..
वातायन, आँगन, मर्यादा
पूजा, रसोई, तुलसी चौरा.
तुम साँस-साँस को दोहा कर
आसों को चौपाई कर दो...
*
जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..
*****

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Comment by Rash Bihari Ravi on September 5, 2011 at 2:09pm

जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..

 

bahut khubsurat sir ji


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 5, 2011 at 11:33am

आहा, बहुत ही सरस गीत बन पड़ा है, खुबसूरत शैली मे कही गई खुबसूरत बात, बहुत बहुत आभार आचार्य जी |

Comment by sanjiv verma 'salil' on August 29, 2011 at 8:12am

sabhee ka abhar shat-shat.

Comment by mohinichordia on August 28, 2011 at 11:19am

ये सब कार्य एक महिला ही कर सकती हे ,एक बेटी ,एक बहिन ,एक पत्नी सब जीवन की भरपाईही नहीं करते ,जीवन को अर्थ डे देते हें ,जीवन को खुशियों से भर देते हें |इन के बिना आँगन ,घर सब सूने  लगते हें |बहुत ही सुन्दर व  मार्मिक रचना |बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2011 at 1:01pm

गीत की पंक्तियों के प्रत्येक शब्द अस्वर को अनुप्राणित कर देने का की ताकत रखते हैं. 

//जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..//

आपकी विशिष्ट शैली की रचना को सादर प्रणाम.

 

Comment by Abhinav Arun on August 27, 2011 at 9:20am

तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..
रह भेदभाव से दूर सदा-
निस्वार्थ भावमय समता हो..
वातायन, आँगन, मर्यादा
पूजा, रसोई, तुलसी चौरा.
तुम साँस-साँस को दोहा कर
आसों को चौपाई कर दो...

 कामना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला दो !! बहुत सुन्दर सहज भावों का मधुर संयोजन ! नमन आचार्यवर !!

 

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