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ग़ज़ल-नूर -अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.

२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 730

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:06am

शुक्रिया आ. वीनस जी..जो यहाँ से सीखा है..यहीं लौटा रहा हूँ 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. सौरभ सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. मोहन जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by shree suneel on June 2, 2015 at 9:13pm
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे... व्वाहह!!
ख़ूब.. शानदार..बेहतरीन. .
बधाई.. बधाई. .
Comment by वीनस केसरी on June 2, 2015 at 7:43pm

यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.   

एक के बाद एक ... खजाने से नगीने पेश कर रहे हैं ...
क्या कहने ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2015 at 1:35pm

मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  ....... और तब ये इतनी लहलहायी हुई दिख रही है ! सुबहानअल्लाह !  दिल से दाद लीजिये, आदरणीय..

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 2, 2015 at 11:05am

हर शेर बढ़िया ....बहुत खूब ...सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 1, 2015 at 10:57pm

यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.क्या बात है आ० नूर सर!हार्दिक बधाई!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:30pm

शुक्रिया आ. महर्षि जी 

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