122 - 122 - 122 - 122
(भुजंगप्रयात छंद नियम एवं मात्रा भार पर आधारित ग़ज़ल का प्रयास)
दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ
कि सारा जहाँ देश होगा हमारा
हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ
हवा ही मुझे वो पता दे गयी है
जहाँ आशियाना बसाने चला हूँ
चुभा ख़ार सा था निगाहों में तेरी
तुझी से निगाहें मिलाने चला हूँ
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरे
दिलों से ख़राशें हटाने चला हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
Samar kabeer
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब, भुजंगप्रयात छंद आधारित ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें I
'दिलोंको दिलोंसे मिलाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ'
आपने ग़ज़ल में 'आने' क़वाफ़ी लिये हैं और मतले में 'लाने की क़ैद हप रही है देखिएगा I
'ख़ताएं मिरी थीं ख़तावार हूँ मैं'
इस मिसरे में आपने 'मेरी' शब्द को मात्रा पतन के साथ 'मिरी' लिखा है, छंद में इसकी इजज़त नहीं होती, मिसरा बदलने का प्रयास करें I
Sep 30, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद मसर्रत-बख़्श है, हौसला अफ़ज़ाई और इस्लाह के लिए मशकूर हूँ। जी सही फ़रमाया मतले में 'लाने' की क़ैद हो रही है, दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ, 'ख़ताएं मिरी थीं ख़तावार हूँ मैं' पर भी कुछ और सोचता हूँ। सादर।
Sep 30, 2021
AMAN SINHA
जनाब अमिरुद्दिन साहब,
आप लोगोंं को पढ कर समझ मे आता है की अभी कितना कुछ सिखना मेरे लिये बाकी है और जरूरी भी है।
रचना बहुत अच्छी और दिल को छुने वाली लगी।
Oct 1, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया। आपकी टिप्पणी दिल छू गई।
ये सच है जनाब सीखना कभी ख़त्म नहीं होता, मैं भी एक तालिब-ए-इल्म हूँ और हमेशा रहूँगा। सादर।
Oct 1, 2021
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
Oct 9, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु आभार। सादर।
Oct 9, 2021
बृजेश कुमार 'ब्रज'
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीय अमीरुद्दीन जी...
Oct 10, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय अमीरुद्दीन ’अमीर’ साहब,
भुजंगप्रयात का नशा आप पर ऐसा तारी हुआ दीख रहा है कि आपने तो हमें चकित कर दिया है. यह सात्विक नशा है. इसका बने रहना अवश्य ही सारस्वत विकास का शुभ-कारण हो सकता है.
जय-जय.
वैसे, इस ग़ज़ल को अरूज के लिहाज से न देखें यह संभव ही नहीं है. सो, मतले को देखें -
दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ
’आने’ के काफिया पर ’जग’ और ’चल’ पूर्ण शब्द निर्धारित हो रहे हैं जो इता के ऐब या दोष का कारण बना रहे हैं.
यह अरूज का दोष होने से मानना तो होगा ही. अगर आपकी तरफ से कोई और ही सूरत बन रही हो तो कृपया साझा करें.
बाकी, इस बढ़िया कोशिश के लिए दिली बधाइयाँ.
Oct 12, 2021
नाथ सोनांचली
आद0 अमीरुद्दीन "अमीर" जी सादर अभिवादन।
भुजंगप्रयात छ्न्द पर बेहतरीन प्रयास किया है आपने। आपके इस प्रयास से मेरा भी उत्साह बढ़ा है। बहुत बहुत बधाई आपको
Oct 13, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय छन्द-शास्त्री सौरभ पाण्डेय जी आदाब, ख़ाकसार की छंद आधारित ग़ज़ल पर आपकी आमद ही स्वयं में अनुकंपा है, इस से भी बढ़कर आपके वचनों के शुभत्व और आशीर्वाद से जो उत्साह का संचार मुझे प्राप्त हुआ है वह अभूतपूर्व है जिसके लिए मैं आपका हृदयगत आभारी हूँ।
अवश्य ही ग़ज़ल को अरूज़ की कसौटी पर परखना अपरिहार्य है, मतले -
"दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ" में आपने ईता का दोष होना माना है, जिस से मैं सहमत नहीं हूँ। जहाँ तक मेरी जानकारी है क़ाफ़िया दोष-रहित होने के लिए ज़रूरी है कि
१. मतले में या तो दोनों क़वाफ़ी विशुद्ध मूल शब्द हों, अथवा
२. एक मूल शब्द हो और दूसरा ऐसा शब्द जिसमें कुछ अंश बढ़ाया गया हो, अथवा
३. दोनों ही क़वाफ़ी से बढ़ाये हुए अंश निकाल देने पर समान तुकांत शब्द ही शेष रहें, अथवा दोनों ही बढ़ाये हुए अंशों वाले क़ाफ़ियों में व्याकरण भेद हो, अथवा
४. दोनों क़ाफ़ियों में बढ़ाए हुए अंश समान अर्थ न दें.
जैसा कि आपने बताया ’आने’ के क़ाफ़िया पर ’जग’ और ’जल’ पूर्ण शब्द निर्धारित हो रहे हैं, लेकिन चूंकि शब्द 'जलाने' और 'जगाने' में बढ़ाए गये अंश 'ने' हैं तथा बचे मूल शब्द 'जला' और 'जगा' 'आ' की समान तुकांतता है अत: क़वाफ़ी दोष रहित एवं दुरुस्त हैं, 'जगाने' और 'जलाने' के मूल शब्द 'जग' और 'जल' नहीं हो सकते हैं क्योंकि 'जलाने' से शेष बचा शब्द 'जल' का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'पानी' तथा 'जगाने' से शेष बचा शब्द 'जग' का का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'जगत' होता है, अतः उपरोक्त नियमों के परिप्रेक्ष्य में क़वाफ़ी ईता के दोष से मुक्त हैं अर्थात दुरुस्त हैं। फिर भी अगर मुझसे कोई चूक हो रही हो या ग़लत-बयानी हो गई हो तो मुझे दुरूस्त करने की कृपा करें। ऐन नवाज़िश होगी। सादर।
Oct 13, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय नाथ सोनांचली जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया ।
मेरे छोटे से प्रयास से आपका उत्साहवर्धन हुआ ये ख़ुशी की बात है। सादर।
Oct 13, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
मैं इसे ग़ज़ल के तौर ही पर देख रहा हूँ.. छंद अथवा बह्र के नाम में उलझने का कोई इरादा नहीं है मेरा.
मतला अच्छा हुआ है.. आ. सौरभ सर की बात से असहमत हूँ
जगाने और जलाने में काफ़िया आ मात्रिक हो गया है जो पूर्णत: शास्त्र सम्मत है ..
हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ ... निशाँ सरहदों के मिटाने चला हूँ..अधिक बेहतर होता.. हद और सरहद का अंतर आप जानते ही हैं.
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरा .. ये मिसरा अपूर्ण लग रहा है.. सभी दोष के साथ मेरा नहीं मेरे आना चाहिए ..साथ ही
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरा
दिलों से ख़राशें हटाने चला हूँ..इन मिसरों में रब्त नहीं हैं .. साथ ही खराशें हटती नहीं मिटती हैं..बहुत बारीक सा अंतर है
ग़ज़ल के लिए बधाई
सादर
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Oct 14, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय निलेश शेवगाँवकर 'नूर' साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी तशरीफ़-आवरी, इस्लाह और संबल प्रदान करने के लिए बेहद शुक्रिया।
//हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ ... निशाँ सरहदों के मिटाने चला हूँ..अधिक बेहतर होता..// सहमत हूँ। ग़ज़ल छंद आधारित न होती तो मैं भी यही करता, हालांकि मस्लह्तन सरहद के विकल्प के तौर पर 'हद' को लिया जाना भी न्यायोचित है।
'ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरा' मिसरे पर आपका सुझाव अनुकरणीय है।
//दिलों से ख़राशें हटाने चला हूँ.. खराशें हटती नहीं मिटती हैं..बहुत बारीक सा अंतर है//
जी दुरुस्त फ़रमाया अगर तबीब इलाज करे तो ख़राशें धीरे-धीरे ही मिटती हैं लेकिन अगर दर्द और ख़राशें देने वाला ख़ुद ही दवा करे तो ख़राशें एक झटके में हट जाया करती हैं। सादर।
Oct 14, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
सुधीजन मुझसे असहमत हों, यह संभव है. तार्किक असहमति का स्वागत भी होना चाहिए. किन्तु, अरूज की बारीकियों को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता न !
निम्नलिखित उद्धरण का संज्ञान लें, जो आज ही पोस्ट हुआ है और अभी सौभाग्य से मेरी नजर में आ गया.
आपने मतले में 'रहे' के साथ 'सुने ' या 'कहे ' या 'भरे 'को बाँधा तो उससे ईता का दोष बनेगा। आपको बस मतले में एक क़ाफ़िया ऐसा रखना है जिसमें “ए” की मात्रा हटाने के बाद कोई प्रचलित शब्द न बचे। जैसे रहे में से ए हटेगा तो रह बचेगा, जो एक शब्द है। जागते में से ए हटेगा तो जागत बचेगा जो कोई शब्द नहीं है। तो बस मतले में यह सावधानी रखनी है कि एक मिसरे का क़ाफ़िया ऐसा हो, जिसमें से “ए” हटाने पर कोई प्रचलित शब्द नहीं बचे।
यह उद्धरण ग़ज़ल विधा को लेकर अत्यंत सजग तथा अरूज पर उस्तादी पकड़ रखने वाले आज के साहित्यिक परिवेश में सशक्त हस्ताक्षर पंकज सुबीर द्वारा अपने पटल पर आज ही चस्पाँ किया गया है.
अर्थात हम अनावश्यक तर्कों से बचें. बाकी, मैं विधाओं की अवधारणाओं पर मूलभूत बिन्दुओं के साथ उपस्थित होता रहूँगा.
सादर
Oct 16, 2021
Samar kabeer
//निम्नलिखित उद्धरण का संज्ञान लें, जो आज ही पोस्ट हुआ है और अभी सौभाग्य से मेरी नजर में आ गया//
ये आलेख कहाँ पोस्ट हुआ है,बराह-ए-करम लिंक भेजें ताकि हम भी पढ़ सकें ।
Oct 16, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब, जनाब पंकज सुबीर जी के पटल से उद्धृत जानकारी इस मंच पर साझा करने के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ जो आपकी पूर्व में की गई टिप्पणी "आने’ के काफिया पर ’जग’ और ’चल’ पूर्ण शब्द निर्धारित हो रहे हैं जो इता के ऐब या दोष का कारण बना रहे हैं" में दी गई फाइंडिंग के विपरीत है, यानी यहाँ आप ख़ुद को दुरुस्त कर रहे हैं और मुझे सही साबित कर रहे हैं।
बेशक 'पंकज सुबीर जी ग़ज़ल विधा को लेकर अत्यंत सजग तथा अरूज पर उस्तादी पकड़ रखने वाले आज के साहित्यिक परिवेश में सशक्त हस्ताक्षर हैं, , मैं आपके इस कथन से सहमत हूँ।
उनके पटल से आपके द्वारा साझा की गई जानकारी के मुताबिक़-
"मतले में 'रहे' के साथ 'सुने ' या 'कहे ' या 'भरे 'को बाँधा तो उससे ईता का दोष बनेगा। आपको बस मतले में एक क़ाफ़िया ऐसा रखना है जिसमें “ए” की मात्रा हटाने के बाद कोई प्रचलित शब्द न बचे। जैसे रहे में से ए हटेगा तो रह बचेगा, जो एक शब्द है। जागते में से ए हटेगा तो जागत बचेगा जो कोई शब्द नहीं है। तो बस मतले में यह सावधानी रखनी है कि एक मिसरे का क़ाफ़िया ऐसा हो, जिसमें से “ए” हटाने पर कोई प्रचलित शब्द नहीं बचे।"
अब पुन: मेरी ग़ज़ल के मतले के क़वाफ़ी 'जगाने' और 'जलाने' को कोट की गयीं अण्डर-लाईन के सन्दर्भ में देखें जिसके अनुसार क़वाफ़ी में से "ए" हटाने पर 'जगान' और 'जलान' अपूर्ण या अप्रचलित शब्द बचते हैं, अर्थात क़वाफ़ी ईता के दोष से मुक्त हैं। सादर।
Oct 16, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय अमीरुद्दीन साहब, यह अच्छा है कि इसी बहाने विधान पर तार्किक चर्चा हो पा रही है जो ओबीओ के पटल की विशेषता होने के बावजूद यह एक लंबे अरसे से नहीं हो पा रही थी.
आप उद्धरण को केवल सतही और शाब्दिक तौर पर ले रहे हैं. हुजूर, 'ए' का काफिया आदरणीय पंकज जी के हवाले से है. जबकि आपके हवाले से तो काफिया 'आने' बन रहा है. आपही की ग़ज़ल के मतले से यह निर्धारित हो रहा है न ? 'जगाने' और 'जलाने' से काफिया अलबत्ता 'आने' ही निकलेगा. आपके मतले से केवल 'ए' का काफिया कैसे निर्धारित हो सकता है.
'आने' के बाद दोनों शब्दों के बच गये शब्द क्या बाकी रहते हैं ? शर्तिया, 'जग' और 'जल' ! यही तो एक प्रारंभ से मेरा निवेदन है कि आपके काफिया निर्धारण में ईता का ऐब है. मैं तो छोटी इता और बड़ी ईता की बात ही नहीं कर रहा हूँ.
विश्वास है, तथ्य स्पष्ट हो पाया है.
सादर
Oct 17, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय समर साहब, बाह्य लिंकों को इस पटल पर उद्धृत करने की मनाही है. इसलिए मैंने उद्धरण के तौर पर उक्त पॉरा को कोट किया है.
आप आ० पंकज भाई के पोस्ट पर जा कर आश्वस्त हो सकते हैं.
शुभ-शुभ
Oct 17, 2021
डॉ छोटेलाल सिंह
Oct 17, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, माज़रत के साथ अर्ज़ करना है कि बक़ौल आपके 'जगाने' और 'जलाने' शब्द के कारण 'आने’ के क़ाफिया पर ’जग’ और ’जल’ पूर्ण शब्द निर्धारित हो रहे हैं जो ईता के ऐब या दोष का कारण बना रहे हैं। मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूँ कि 'जगाने' और 'जलाने' के मूल शब्द 'जग' और 'जल' नहीं हो सकते हैं क्योंकि 'जलाने' से शेष बचा शब्द 'जल' का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'पानी' है (जिसका जलने-जलाने से) तथा 'जगाने' से शेष बचा शब्द 'जग' का का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'जगत'(जिसका जागने-जगाने से) से कोई सम्बन्ध नहीं है।
उपरोक्त विवेचना के परिप्रेक्ष्य में क़ाफ़िया से बचे उक्त शब्द क़ाफ़िया के मूल स्वभाव से अलग होने के कारण मूल शब्द नहीं हैं अर्थात 'जगाना या जलाना' स्वयं ही मूल शब्द हैं और मूल शब्द का क़ाफ़िया रखना नियमानुसार है। वैसे ईता-ए-ख़फ़ी को नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है। - :)) शुभ-शुभ।
Oct 17, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय डाॅ छोटेलाल सिंह साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
Oct 17, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
अब चूँकि आप समझ चुके हैं कि आपसे क्या अपेक्षित है, आगे आप स्वयं फैसला करें.
वस्तुत:, अब चर्चा मुर्गे की टांग हो रही है, मैं प्रस्तुत चर्चा से अपनी भागीदारी वापस लेता हूँ. आपकी इस पोस्ट पर आए सुधीजन इस चर्चा का लाभ ले सकेंगे, इस आशा के साथ..
शुभातिशुभ
Oct 17, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. सौरभ सर,
योजित काफ़िया में यदि बढ़ा हुआ अक्षर हटाने के बाद भी दोनों शब्द सार्थक हों जैसा इस केस में है..तो दोष नहीं माना जाएगा .
जगा ने और जला ने से ने हटाने पर जगा और जला बचते हैं जो अलिफ़ पर दुरुस्त काफिया हैं अत: यहाँ दोष नहीं है..
हस्तीमल हस्ती की बड़ी मकबूल ग़ज़ल जिसमें आपके द्वारा वर्णित दोष है ..का मतला निम्न है..
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प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है...
यहाँ ने को हटाने पर लिख व उड़ में काफिया नहीं बनता लेकिन कई विद्वान् इसे भी भिन्न क्रियारूप काफिया बता कर चलाते हैं और दुरुस्त मानते हैं..
अमीर साहब की ग़ज़ल के काफिया में कोई दोष नहीं है..
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अपने ही तरही आयोजन 40 में इकबाल अशर साहब का मिसरा था .'इक आफ़ताब के बेवक्त डूब जाने से"
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/40?id=5170231%3ATopic%3...
उसी ग़ज़ल का मतला यूँ है ..
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यह मतला भी देखें
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सिलसिला ख़त्म हुआ जलने जलाने वाला
अब कोई ख़्वाब नहीं नींद उड़ाने वाला.. इक़बाल अशर .
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तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए.. अहमद फ़राज़
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हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते
राहत इंदौरी ( 30 साल कॉलेज में ग़ज़ल पढ़ाने वाले और ग़जल पर थीसिस लिखकर डॉ कहलाने वाले डॉ राह इन्दोरी)
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शायद मैं अपना केस ठीक से प्लीड कर पाया हूँ ..
१०००% कन्फर्म हूँ कि अमीर साहब के काफिये में दोष नहीं है .
सादर
Oct 17, 2021
बृजेश कुमार 'ब्रज'
एक और उम्दा ग़ज़ल और उसपे हुई चर्चा...वाह
Oct 17, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय नीलेश जी, किसी दोष का होना और न मानना, किसी दोष होना और मान लेना, लेकिन उसे दूर न कर पाना, दोनों दो चीजें हैं.
तकाबुले रदीफ या तनाफुर या शब्दों की बुनावट आदि के दोष दोष ही होते हैं. लेकिन कई बार विद्वान शाइर उससे दूरी नहीं बना पाते. आपने जिन शाइरों के शेर उद्धृत किये हैं, उनके अलावा भी फ़िराक़, या अपने अग्रज एहतराम भाई साहब जैसे अनेकानेक शाइर हैं, जिनके शेर में जहाँ-तहाँ दोष दीख जाते हैं. लेकिन शाइर अपनी गलतियों को लेकर मुर्गे की टांग नहीं बनाने लगते. वे कह देते हैं कि उक्त शेरों में ऐब तो है मगर इससे बेहतर उन शर्तों पर नहीं कह पा रहे हैं. यह एकदम से अलग बात होती है. ऐसे अपवादों को नियम का दर्जा नहीं मिल जाता. अपने ओबीओ का पटल सीखने-सिखाने का पटल है. मूलभूत नियमावलियों को समझने और तदनुरूप बरतना सीखने का पटल है.
मेरी चर्चा का आशय यही है, न कि मैं अपनी दो कौड़ी की काबिलियत दिखा रहा हूँ. लेकिन, राहत साहब तो तनाव-चुनाव से भी काफिया निकाल लेते हैं. एकधुरंधर बादल-पागल पर दिल थोप देता है. क्या कीजिएगा ? समरथ को नहिं दोस गुँसाईं.. गोसाईं जी तो कह ही गये हैं न ! .. :-))
कई बार यह भी होता है कि कतिपय रचनाओं का मर्म न समझ पाने के कारण पाठकगण भी 'दोष' आदि ढूँढने और बताने लगते हैं. जबकि होता यह है, कि ऐसी रचनाओं का स्तर या भाव-विन्यास एक अलग आयाम का होता है. वर्तमान चर्चा इस लिहाज की नहीं है.
शुभातिशुभ
Oct 17, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
//अनेकानेक शाइर हैं, जिनके शेर में जहाँ-तहाँ दोष दीख जाते हैं. लेकिन शाइर अपनी गलतियों को लेकर मुर्गे की टांग नहीं बनाने लगते. वे कह देते हैं कि उक्त शेरों में ऐब तो है मगर इससे बेहतर उन शर्तों पर नहीं कह पा रहे हैं//अपने ओबीओ का पटल सीखने-सिखाने का पटल है. मूलभूत नियमावलियों को समझने और तदनुरूप बरतना सीखने का पटल है//
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, आप अभी तक निश्चित नहीं हैं कि इस ग़ज़ल के मतले में ईता-ए-ख़फ़ी दोष है या ईता-ए-जली जैसा कि आपने कहा भी है ''प्रारंभ से मेरा निवेदन है कि आपके काफिया निर्धारण में ईता का ऐब है. मैं तो छोटी ईता और बड़ी ईता की बात ही नहीं कर रहा हूँ"
आप ओ बी ओ पटल के सम्मानित और वरिष्ठ सदस्य होने के साथ-साथ टीम प्रबंधन के सम्मानित सदस्य के पद को भी सुशोभित कर रहे हैं लिहाज़ा ग़ज़ल में बड़ी ईता है या छोटी ईता का दोष है बताते तो अच्छा होता क्योंकि यह सीखने सिखाने का पटल है, यदि यह बात शुरू में स्पष्ट हो जाती तो 'मुर्ग़े की एक टाँग' न होती क्योंकि केवल छोटी ईता पर तो चर्चा को इतनी लम्बी खींचने की ज़रूरत ही नहीं होती क्योंकि अक्सर-ओ-बेशतर इसे नज़र-अंदाज किया जाता है। अब ये चर्चा बिना किसी नतीजे के समापन के कगार पर आ गयी है। कृपया ईता दोष के सम्बन्ध में नियमावली के हवाले से बताने का कष्ट करें कि क़ाफ़िये में अमुक नियम या उपनियम के अन्तर्गत छोटी ईता का दोष है अथवा बड़ी ईता का दोष है जिससे कि स्पष्टीकरण दे सकूं अथवा दोष स्वीकार कर सकूं, कृपया इस असमंजस की स्थिति से ख़ुद भी बाहर आइये और मुझे भी निकालिए। आपके अवलोकनार्थ कुछ नामचीन और उस्ताद शाइरों की ग़ज़ल के मतले भी कोट कर रहा हूँ, देखियेगा।
'नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल जिस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने' - मिर्ज़ा ग़ालिब क़ाफ़िया- 'आए' छोड़ कर बचे शब्द 'सुन' और 'बन' पूर्ण शब्द
'हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गये हैं
कि उस गली में गये अब ज़माने हो गये हैं' - जौन एलिया क़ाफ़िया- 'आने' छोड़ कर बचे शब्द 'पुर' और 'ज़म' पूर्ण शब्द
'आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है' - मीर तक़ी मीर क़ाफ़िया- 'आती' छोड़ कर बचे शब्द 'उठ' और 'चल' पूर्ण शब्द
'अजब हालत हमारी हो गई है
ये दुनिया अब तुम्हारी हो गई है' - जौन एलिया क़ाफ़िया- 'आरी' छोड़ कर बचे शब्द 'हम' और 'तुम' पूर्ण शब्द
'दुज़्दीदा निगह करना फिर आँख मिलाना भी
इस लौटते दामन को पास आ के उठाना भी' - मीर तक़ी मीर क़ाफ़िया- 'आना' छोड़ कर बचे शब्द 'मिल' और' उठ' पूर्ण शब्द
' दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ' - अज़ख़ुद क़ाफ़िया- 'आने' छोड़ कर बचे शब्द 'जग' और 'जल' पूर्ण शब्द (आपकी मान्यतानुसार) सादर।
Oct 17, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. सौरभ सर,
मुझे लगता है कि आपकी ताज़ा टिप्पणी विषयांतर है .. यहाँ बात अमीर साहब के मतले की है और मैं न केवल राहत साहब अपितु इक़बाल अशर साहब और अहमद फ़राज़ साहब के शेर भी उदाहरण स्वरूप दे चुका हूँ अत: आपके पास कोई ठोस उदाहरण हो तो ज्ञानवर्धन करें..
आपकी मान्यता को अरूज़ के नियम मान लेना सम्भव नहीं है . मंच पर काफ़िया सम्बन्धी पूरी जानकारी ग़ज़ल की कक्षा में उपलब्ध है.
रहीं बातें तकाबुल ए रदीफ़ अथवा तनाफुर की.. तो ये अवश्य दोष हैं.. कोई मानता है कोई नहीं मानता..लेकिन यहाँ चर्चा इता दोष की है जो इस ग़जल में नहीं है.. अलिफ़ की मात्रा से पहले वर्ण बदल गये हैं.. अत: आगे ने आए या ते ..फर्क नहीं पड़ता
तनाफुर को लेकर ख़ुदा की यह ग़ज़ल देखें
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जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं.
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क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं.
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मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं.
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किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं
.
गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं
.
करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं
.
जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं
.
सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं
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उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं...................
........................................................................................................
अमीर साहब ही की तरह योजित काफिये पर ख़ुदा की ही एक ग़ज़ल पेश है
.
आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है
.
नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से
तेरे ख़त की ख़बर को पाती है
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ऐ शब-ए-हिज्र रास्त कह तुझ को
बात कुछ सुब्ह की भी आती है
.
चश्म-ए-बद्दूर-चश्म-ए-तर ऐ 'मीर'
आँखें तूफ़ान को दिखाती है.
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एक और ग़ज़ल मीर की
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शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत
मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत
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बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श
दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत
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वादी ओ कोहसार में रोता हूँ ड़ाढें मार मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत
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वा नहीं होता किसू से दिल गिरफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत
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'मीर' गुम-गश्ता का मिलना इत्तिफ़ाक़ी अम्र है
जब कभू पाया है ख़्वाहिश-मंद पाया है बहुत
यूँ तो मीर के बाद कोई दलील देना बेअदबी है फिर भी हसीब सोज़ साहब का मतला शायद कोई राहत दे सके
.
बड़े हिसाब से इज़्ज़त बचानी पड़ती है
हमेशा झूटी कहानी सुनानी पड़ती है
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यह इस सिलसिले में मेरी अंतिम टिप्पणी है.. नए सीखने वाले शायद समझ गए होंगे कि ग़ज़ल में योजित काफिया कैसे बाँधा जाता है.
सादर
Oct 17, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. सौरभ सर,
यूँ तो मैं अंतिम टिप्पणी कर चुका था किन्तु तनाफुर पर आदतन हडप्पा की खुदाई से यह ग़ज़ल बरामाद हुई ...
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अब दिखेगी भला कभी हममें..
आपसी वो हया जो थी हममें ?
हममें जो ढूँढते रहे थे कमी
कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !
साथिया, हम हुए सदा ही निसार
पर मुहब्बत तुम्हें दिखी हममें ?
पूछते हो अभी पता हमसे
क्या दिखा बेपता कभी हममें ?
पत्थरों से रही शिकायत कब ?
डर हथेली ही भर रही हममें !
चीख भरने लगे कलंदर ही..
मत कहो, है बराबरी हममें !
नूर ’सौरभ’ खुदा का तुम ही गुनो
जो उगाता है ज़िन्दग़ी हममें !
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सौरभ
(तकाबुले रदीफ या तनाफुर या शब्दों की बुनावट आदि के दोष दोष ही होते हैं. लेकिन कई बार विद्वान शाइर उससे दूरी नहीं बना पाते.)
यदि समय निकाल पाया तो जल्दी ही तक़ाबुल-ए-रदीफ़ पर भी किसी उस्ताद शाइर की ग़ज़ल पेश करूँगा.
सादर
Oct 18, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
जो कहा है मैंने उसका समर्थन कर रहे हैं आप लोग. लेकिन साबित क्या करना चाहते हैं ? कि, दोष आदि पर कोई चर्चा न करे ?
आ० नीलेश जी ???
हम चर्चा कर रहे हैं या कुछ और ? लिखा हुआ पढ़ भी रहे हैं ?
आ० अमीरुद्दीन जी पटल पर नए हैं. उनसे अभी कुछ न कहूँगा.
हम चर्चा स्पष्टत: बंद करें.
Oct 18, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. सौरभ सर ,
मंच की परम्परा रही है की दोष हो या न हो, संशय मात्र होने पर भी विस्तृत चर्चा की जाती है. मैं भी इसी परम्परा से सीखा हूँ . यहीं से सीखा हूँ.
मेरी किसी टिप्पणी से आप आहत हुए हों अथवा मैंने अगर बात को आवश्यकता से अधिक खेंच दिया हो तो मैं सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगता हूँ.
अन्य सभी बातों को परे करते हुए अमीर साहब की ग़ज़ल के मतले पर यही कहूँगा कि योजित अक्षर से पहले आ की ध्वनी पर दो भिन्न वर्ण हैं अत: काफ़िया दुरुस्त है.
सादर
पुन: क्षमा
Oct 18, 2021
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
जनाब बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
Oct 18, 2021
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
लिखने और केवल लिखने मात्र को परिचर्चा का अंग नहीं कह सकते. पढ़ना और पढ़े को गुनना भी उतना ही जरूरी हिस्सा है. मेरी टिप्पणियों में सारी बातें लिखी हुई हैं. उन पंक्तियों को ठहर कर पढ़ा जाय तो अनावश्यक बहसबाजी से इतर तार्किक समझ-बूझ के बिन्दु प्रश्रय पाएँगे. सो, जो कुछ चर्चा की जगह होने लगा, वह चर्चा नहीं कुछ और ही है.
विधान के अनुरूप ही कोई रचनाकर्म होता है. लेकिन कई बार विधान का दायरा टूटता है, फिर भी रचनाएँ अपने भाव और भाग्य से मान और जीवन पा जाती हैं. लेकिन ऐसी रचनाएँ अपवादों की श्रेणी में गिनी जातीं हैं. उन अपवादों को कभी नियम के अंतर्गत मान्य नहीं मान लिया जाता. ऐसी रचनाओं को अपना साहित्यिक समाज तथा संस्कार आर्ष-रचना या आर्ष-वाक्य कह कर अपना लेता है. लेकिन सारी विधाच्यूत रचनाएँ आर्ष-रचनाएँ नहीं मान ली जातीं. इस तथ्य को भी इशारों में मैंने उद्धृत कर दिया था.
दोष की चर्चा तो होगी ही, चाहे सैकड़ों उदाहरण क्यों न प्रस्तुत किये जायँ. भले कोई माने, न माने.
चर्चा समाप्त.
Oct 18, 2021
Samar kabeer
//चर्चा समाप्त//
जनाब सौरभ पाण्डेय जी, क्या ये आदेश है?
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप कैसी चर्चा कर रहे हैं, जनाब अमीरुद्दीन साहिब ने आपसे जो प्रश्न किये हैं उनके उत्तर देना भी आपकी ज़िम्मेदारी में शामिल है, उन्हें तो आपने नज़र अंदाज़ ही कर दिया । जबकि ये चर्चा उन्हीं के मतले पर हो रही है ।
Oct 18, 2021
Nilesh Shevgaonkar
आ. सौरभ सर,
चर्चा में कहीं श्री पंकज सुबीर साहब का ज़िक्र पढ़ा था.. उन्हीं के ऑनलाइन आलेख का स्क्रीन शॉट साझा कर रहा हूँ ..
योजित काफिया बचाऊं और सुनाऊं पर गौर करें.. इससे आप के मन का संशय दूर होगा ..
आलेख 26 फरवरी 2008 का है और हिन्द युग्म पर उपलब्ध है
आप जिसे दोष बता रहे हैं वह अस्ल में दोष है ही नहीं ..
सादर
Oct 20, 2021
Nilesh Shevgaonkar
श्री पंकज सुबीर के जिस आलेख का हवाला आपने दिया है उसका स्क्रीन शॉट यहाँ सलग्न है .
यहाँ पर मैं उन के आलेख से सहमत नहीं हूँ. उनके अनुसार रहे और कहे आदि में इता दोष होगा-यह कथ अपने आप में दोषपूर्ण है . यह ए मात्रिक काफिया है. मात्रा से पहले का वर्ण भिन्न होने से कोई इता दोष हो ही नहीं सकता ..
ग़ज़ल के एक सबसे सशक्त हस्ताक्षर हबीब जालिब साहब का मतला देखें
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बड़े बने थे 'जालिब' साहब पिटे सड़क के बीच
गोली खाई लाठी खाई गिरे सड़क के बीच... यहाँ पिट और गिर दोनों सार्थक शब्द हैं प्रचलित हैं फिर भी दोष नहीं है ..
अमीर साहब की ग़ज़ल पर आते हुए
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वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे
ख़्वाब क्या क्या नज़र आते हैं मुझे.. मोमिन
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कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
जौन एलिया
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सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते अहमद फ़राज़
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उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं.. दाग़ ( उर्दू ग़ज़ल की नियमावली तय करने वाले पहले अरूज़ी)
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नामा-बर आते रहे जाते रहे
हिज्र में यूँ दिल को बहलाते रहे कुं. महेंद्रसिंह बेदी
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कुछ तो मुश्किल में काम आते हैं
कुछ फ़क़त मुश्किलें बढ़ाते हैं
अपने एहसान जो जताते हैं
अपना ही मर्तबा घटाते हैं.. मुमताज़ राशिद
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तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
क़ब्ज़े पे हाथ रख के डराते हो हम को क्या
गुलाम मुसहफ़ी हमदानी ..
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कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
शाम बेचैन है सूरज को गिराने के लिए ...अब्बास ताबिश
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बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया.. हफ़ीज़ मेरठी
यदि यह सब दोषपूर्ण हैं तो ... शिव शिव
सादर
Oct 20, 2021