1212-- 1122-- 1212-- 22
अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा
परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा
ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है
उभर के आया है आदम में जानवर कैसा
अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की
हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा
सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल
ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा
वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है
जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब समर कैसा
दिनेश कुमार
मौलिक व अप्रकाशित
सुरेश कुमार 'कल्याण'
वाह दिनेश जी वाह बहुत ही सुन्दर रचना
Dec 4, 2023
सतविन्द्र कुमार राणा
सुनन्दरम।
Dec 5, 2023
Dr. Vijai Shanker
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , आदरणीय दिनेश कुमार जी , बधाई। सादर।
Dec 15, 2023
Samar kabeer
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा'
इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें :-
'परिंदे सहमे हुए हैं है उनको डर कैसा'
'ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है'
इस मिसरे में 'ज़ात' शब्द उचित नहीं लगता. इसकी जगह "बेटी" शब्द ठीक रहेगा ग़ौर करें I
कुछ टंकण त्रुटियाँ देखें :-
अँधेरा
दम-ए-
ज़ह्न
शर्म-ओ-
आँचल
Dec 19, 2023
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई दिनेश जी, अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
Jan 1, 2024