ग़ज़ल

मुझ को मेरी मंज़िल से मिला क्यूँ नहीं देते
आख़िर मुझे तुम अपना पता क्यूँ नहीं देते

जज़्बात के शोलों को हवा क्यूँ नहीं देते
तुम आग मुहब्बत की लगा क्यूँ नहीं देते

जब आप को बे इंतिहा मुझ से है मुहब्बत
फिर हाथ मेरी सम्त बढ़ा क्यूँ नहीं देते

जो बन के सितारे हैं रवां आँख से आँसू
ये ज़ीस्त की ज़ुल्मत को मिटा क्यूँ नहीं देते

जो मेरी हया की है अलामत मेरे सर पर
परचम इसी आँचल को बना क्यूँ नहीं देते

होंटों पे मेरे लिख के तबस्सुम की इबारत
आँसू मेरी पलकों के मिटा क्यूँ नहीं देते

जो हम से वफ़ा करने की ग़लती हुई साहब
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते

है आप के इस दिल में मुझे बसने की हसरत
इक कोने में मुझ को भी बसा क्यूँ नहीं देते

तू भूल जा मुझ को के मुझे तुझ से है नफ़रत
ये बात उसे आप बता क्यूँ नहीं देते

सब "नाज़" ही तो करते हैं सुंदरता पे अपनी
तुम ख़ुद को कोई रंग जुदा क्यूँ नहीं देते

मौलिक एवं अप्रकाशित

  • Samar kabeer

    मुहतरमा ममता गुप्ता जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

    'जज़्बात के शोलों को हवा क्यूँ नहीं देते
    तुम आग महब्बत की लगा क्यूँ नहीं देते'

    ऊला में शोलों का ज़िक्र है और सानी में आग लगाने की बात है, ग़ौर करें ।

    'जो हम से वफ़ा करने की ग़लती हुई साहब'

    इस मिसरे में "ग़लती" शब्द का वज़्न 112 होता है, देखें ।

  • Mamta gupta

    जी सर आपकी बेहतरीन इस्लाह के लिए शुक्रिया 🙏 🌺 

    सुधार की कोशिश करती हूँ