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इस तमस में सँभलना है हर हाल में
दीप के भाव जलना है हर हाल में
हर अँधेरा निपट कालिमा ही नहीं
एक विश्वास पलना है हर हाल में
एकपक्षीय प्रेमिल विचारों भरे
इन चरागों को जलना है हर हाल में
निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये
मन से मन तक टहलना है हर हाल में
देह को देह की भी न अनुभूति हो
मोम जैसे पिघलना है हर हाल में
अल्पनाओं सजी गोद में बैठ कर
दीप को मौन बलना है हर हाल में
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(मौलिक और अप्रकाशित)
एकपक्षीय - एक तरफा
निर्निमेषी नयन - अपलक हुई आँखें
Samar kabeer
जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब, बहुत समय बाद आपकी ग़ज़ल ओबीओ पर पढ़ने को मिली, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये
मन से मन तक टहलना है हर हाल में'
ये शे'र ख़ास तौर पर पसंद आया, इस पर अलग से दाद हाज़िर है ।
Nov 2
रामबली गुप्ता
Nov 4
Sushil Sarna
Nov 8
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय समर साहेब,
इन कुछेक वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। प्रत्येक शरीर की अपनी सीमाएँ होती हैं।
स्वास्थ्य की समस्या से निजात पा तो चुका हूँ, लेकिन परहेज से निजात नहीं मिली है। फिर भी, बहुत कुछ कर पा रहा हूँ।
आपने मेरे प्रयास की सराहना की है। अच्छा तो लगा ही है, मन भी आश्वस्त हुआ है। आपकी सदाशयता का हार्दिक धन्यवाद।
शुभ-शुभ
Nov 14