ढीली मन की गाँठ को, कुछ तो रखना सीख।
जब चाहो तब प्यार से, खोल सके तारीख।१।
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मन की गाँठे मत कसो, देकर बेढब जोर
इससे केवल टूटती, अपनेपन की डोर।२।
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दुर्जन केवल बाँधते, लिखके सबका नाम
लेकिन गाँठें खोलना, रहा संत का काम।३।
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छोटी-छोटी बात जब, बनकर उभरे गाँठ
सज्जन को वह पीर दे, दुर्जन को दे ठाँठ।४।
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रिश्तो को कुछ धूप दो, मन की गाँठे खोल
उनको मत मजबूत कर, कड़वी बातें बोल।५।
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बातें कहकर खोल दे, बाँध न रहकर मौन
मन की गाँठें बाँधकर, सुख पाता है कौन।६।
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आँगन जाते हैं सिकुड़, मन की गाँठें देख
मन की गाँठों के लिए, कुछ तो खींचो रेख।७।
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मन में गाँठें बाँध जो, चला शिखा है खोल
धनानंद सा फिर उसे, मत यूँ हल्का तोल।८।
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गाँठों को झट खोल मन, ऐसे ही मत छोड़
सम्बंधों का प्रेम रस, जो दें सदा निजोड़।९।
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भली न होती गाँठ है, पड़े किसी भी ठौर
लेकिन मन में जो पड़े, करे बुरा हर दौर।१०।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Chetan Prakash
भाई, सुन्दर दोहे रचे आपने ! हाँ, किन्तु कहीं- कहीं व्याकरण की अशुद्धियाँ भी हैं, जैसे:
( 1 ) पहला दोहा तृतीय चरण , " जब चाहो तब प्यार से" पूर दोहे में कर्ता ( यद्यपि अदृश्य ' तुम ) के सापेक्ष " चाहो" के स्थान पर 'चाहे' आना चाहिए।
( 2 ) चौथे दोहे का द्वितीय चरण "ठाँठ" पर समाप्त हो रहा है, किन्तु वर्तनी दोष पूर्ण है ।
( 3 )आठवें दोहे का तृतीय चरण, " धनानंद" से शुरु होता है, सही वर्तनी, ' घनानंद' है ।
( 4 ) नौवें दोहे में, " निजोड़" के स्थान पर, ' निचोड़' होना चाहिए। सादर साभार!
ग
Mar 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी उपस्थिति से प्रसन्नता हुई। हार्दिक आभार।
विस्तार से दोष निवारण करने के लिए हार्दिक आभार।
on Friday